Book Title: Ashtpahud Author(s): Parasdas Jain Publisher: Bharatvarshiya Anathrakshak Jain Society View full book textPage 8
________________ [४] न करना उक्त गाथाओं के प्रक्षिप्त होने का एक विशिष्ट सबल प्रमाण है । प्रा० कुंदकुंद का समय मकैरा के ताम्रपत्र (सं० ३८८) के उल्लेखानुसार अन्तत: अभी प्रथम शताब्दी माना जा रहा है। श्री मान् प्रेमीजी का यह विश्वास है कि कुंदकुंद विक्रम की ५-६ वीं शताब्दी के प्राचार्य होंगे। जो हो, पर इतना निश्चित है कि उनकी कृतियां हमें यह बता देती हैं कि वे साम्प्रदायिक तीव्रता आने वाले युग के पहिले ही के व्यक्ति हैं। इनके समय के विषय में अभी और भी संशोधन की गुंजाइश है। आ० कुंदकुंद के अष्टपाहुड में अनेकों गाथाएं ऐसी जो आवश्यकनियुक्ति, दस प्रकीर्णक, दशकालिक, आदि श्वे० आगमग्रथों में पाई जाती हैं। इस विषय में तो यह मानना समुचित है कि भगवान महावीर स्वामी के उपदेश की प्राचीन गाथाएं कण्ठ परम्परा से चली आती थीं और उन्हें वे जिस प्रकार आगमसंकलना के समय आगमों में सगृहीत हुई उसी तरह प्रा० कुंदकुंद ने अपने ग्रन्थों में भी निबद्ध किया है। अष्टपाहुड ग्रंथ के विषय का सामान्य परिचय प्रस्तावना में दिया ही गया है। प्रा० कुंदकुंद का साहित्य दि० जैन साहित्य के कोष्ठागार में अपना बहुमूल्य विशिष्ट स्थान रखता है और उनकी प्रकृति आध्यात्मिक होने के कारण उनका साहित्य प्रायः साम्प्रदायिक मतभेदों से अलिप्त रहा होगा। अभी इन पाहुडों की प्राचीन प्रतियों पर से इस बात की जाँच की जरूरत है कि उनमें ये सभी गाथाएं पाई जाती हैं जो आज उनमें दर्ज हैं। आज रयणसार की जितनी प्रतियां मिलती हैं उनमें गाथाओं की हीनाधिकता तथा प्रक्षिप्तत्ता पर पूरा पूरा प्रकाश पड़ता है। अन्त में मैं बाबू जगत्प्रसादनी को धन्यवाद दिए बिना नहीं रह सकता जिन्होंने संस्कृत के विद्वान् न होते हुए भी इसमें यथेष्ट श्रम किया और ग्रन्थ को प्रामाणिकता के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया है। मुझे अंग्रेजी भाषा के विशेषज्ञों से उनके अनुवाद के विषय में काफी सन्तोषकारक वाक्य सुनने को मिले । प्रस्तावना में भी उन्होंने अपनी सामग्री और शक्ति के अनुसार पूर्व ग्रहों से मुक्त होकर स्वतन्त्र विचार किए हैं। पं० पारसदासजी शास्त्री का अनुवाद भी ठीक हुआ है। पर गाथाओं की भाषा में अभी संशोधन की पर्याप्त गुंजाइश है। आशा है कि आगे बाबू जगत्प्रसाद जी इसी तरह अन्य साहित्यिक कार्यों में अपना समय लगाएंगे। अन्त में अपनी इस सूचना के साथ ही अपना प्राक्कथन समाप्त करता हूं कि जिस ग्रन्थ का भी कार्य हो पहिले उसकी प्राचीन प्रतियों से मिलान करके मूलपाठ की शुद्धि करके ही अनुवाद आदि होने चाहिएं जिससे ग्रन्थ का अपने गौरव के साथ सम्पादन हो । आज सम्पादन का मापदण्ड काफी ऊंचा हो गया है। अतः इसके अनुरूप ही हमें प्रगति करना चाहिए। स्य द्वाद महाविद्यालय) काशी. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य.Page Navigation
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