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अपने को कृतकृत्य माना। उसने उसी क्षण मानों सब सम्पदाएँ हस्तगत कर ली। पल भर में सब विपत्तियाँ निरस्त हो गईं। महापुरुष का अनुग्रह मिलने पर क्या दुष्प्राप्य रहता है? दुःख में पड़ी राजकुमारी ने ऐहिक, पारलौकिक हित, कल्याण, सुख, क्षेम-सब एक ही साथ पा लिया। इस खण्ड काव्य की कथावस्तु यह है । जो इसका अध्ययन करेंगे, निःसन्देह उनका भविष्य सुखमय, उज्ज्वल और श्रेयसपूर्ण बनेगा।
इस सम्बन्ध में अधिक कहने की अपेक्षा नहीं, ऐसा करने से अपना असामर्थ्य ही प्रगट होगा। संस्कृत विद्या के अध्ययन-अध्यापन के अधिकारी होने के नाते हम जैसे लौकिक पुरुषों के सिर पर गुरुजनों का अनुग्रह-भार आ पड़ा। स्वयं अपनी अनधिकारिता को जानते हुए भी "गुरुजनों की आज्ञा बिना ननु-नच के पालनी चाहिए" इस नीति-वाक्य को स्मरण कर जो कुछ यहाँ हमने बिखरे रूप में लिखा, उसमें जितना ग्राह्य हो, क्षमाशील विद्वान् और इस काव्य के पाठक ग्रहण करें। इस काव्य के गुणों को सम्यक्तया प्रगट करने में हमारी क्षमता नहीं है। अधिक विस्तार में न जा हमारा इतना ही निवेदन है कि इसे पढ़कर किसी का चित्त श्रद्धा से निर्मल बना तो हम अपने आपको कृतार्थ मानेंगे। कलकत्ता
श्री सातकड़ि मुखोपाध्याय शर्मा दिनांक : 30-6-59 डायरेक्टर, नव-नालन्दा महाविहार, नालन्दा (बिहार)
(भूतपूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय)
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