Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ आदर प्राप्त करेगा। आज का समय बड़ा भयावह है। विद्वान् भी अर्थ और काम की चिन्ता में व्यामूढ़ बने हैं। वे गहन शास्त्र-चिन्ता के लिए मन की जैसी स्थिरता अपेक्षित है, वैसी पा नहीं रहे हैं। इसीलिए वे इस तरह के काव्यों के सर्जन में समर्थ नहीं हो पाते। प्रस्तुत काव्य के रचयिता राग और द्वेष से पराङमुख हैं, उन्हें ऐहिक सुख की अभिलाषा नहीं है; वे निरन्तर विद्यानुशीलन और तपश्चरण में लीन रहते हैं। इसमें उन्होंने अन्त:करण का उत्कर्ष साधा है। यह काव्य उनके एकाग्रचित्त की सृष्टि है । यही कारण है कि इस काव्य में समस्त गुण समान रूप में सुलभ हो सके हैं। __ इस काव्य की कथावस्तु कवि ने जैन आगमों से ग्रहण की है। उन्होंने स्वयं इसका पृथक् विवरण दे दिया है, जिसे वहाँ से जाना जा सकता है। अतः इस विषय में मैं अधिक लेखनी चलाऊँ, यह अपेक्षित नहीं। केवल संक्षेप में मैं यों प्रस्तुत करना चाहूँगा : "महापुरुषों की आचार-विधि लौकिक मापदण्ड से नहीं मापी जाती।वहाँ पर्यनुयोग या नियोग का सर्वथा अवसर नहीं रहता। इसलिए अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने ऐसा अभिग्रह क्यों किया? यह पूछने की बात नहीं। इसका जो फल हुआ, वह हमारे सामने है ही-अत्यन्त दुर्दशा में पड़ी हुई तथा बन्दी की हुई चन्दनबाला का उद्धार जो करना था। यद्यपि उसका भाग्य प्रतिकूल था, उसका मन दुःखमय दुर्दिन के अंधियारे से ढका था, पर श्रद्धा का बीज उसके हृदय में दृढ़ता से जमा था। इसलिए उसने भगवान् महावीर का अनग्रह प्राप्त किया।अभिग्रह के जो-जो लक्षण अपेक्षित थे, वे सब उसमें उपलब्ध थे, केवल आँखों में आँसू नहीं थे। भगवान् महावीर के भिक्षार्थ उसने समीप आने पर स्वाभाविक श्रद्धा और महापुरुष के प्रति भक्ति से उसका हृदय खिल उठा, वह हर्ष-विभोर हो चली, आँसू सूख गए। तब पुरुषोत्तम महावीर वहाँ से लौट चले। उसका चित्त अत्यधिक शोक से विगलित हो गया।स्वयं आँसुओं का प्रवाह फूट पड़ा, जिसे रोकने में उसने अपने आपको असमर्थ पाया। इस अश्रु-प्रवाह को अपना दूत बनाकर चन्दनबाला ने परचित्त-ज्ञानी भगवान् महावीर को अपना सन्देश भेजा।भगवान् लौटे; उसका सहज विनय, स्वाभाविक श्रद्धा तथा अतिशय भक्ति जान उन्होंने उसके हाथ से उबले हुए उड़द ग्रहण किए। चन्दनबाला ने (iv) अश्रुवीणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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