Book Title: Aradhanasar Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan View full book textPage 8
________________ ( चारित्र), स्वमें तपन ( तप) रूप निश्चय आराधना द्वारा स्व आत्मा आराध्य है। व्यवहार नय से व्यवहार आराधना के द्वारा परमात्मा पद आराध्य है, आराधना करने योग्य है । आत्मा के उद्योतन वा उसे विशुद्ध करने का उपाय वा कारण होने से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप निर्मल परिणाम ही आराध्य ( आराधना करने योग्य) हैं । अथवा उद्योतन - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप का उद्योतन करना, निर्मल करना, उनमें अतिचार - अनाचार नहीं होने देना । उद्वहन- सम्यग्दर्शनादि चारों आराधना रूप परिणति करना, उनमें तन्मय होना, लीन होना । निर्वहन - इनको दृढ़तापूर्वक धारण करना । साधन किसी कारणवश इन आराधनाओं के विचारों में मन्दता आ जाने पर वस्तु स्वभाव का विचार कर पुनः पुनः उनको जागृत करना, परिणामों की निर्मलता की वृद्धि करना । निस्तरणं सम्यग्दर्शनादि को आमरण पालन करना, निर्दोष रूप व्रतों का पालन करते हुए प्राणों का विसर्जन करना ये सब व्यवहार नय से आराध्य हैं। वा व्यवहार नरसिंह की प्राप्ति आराधना का फल निज शुद्धात्मा + १३ + ही आराधना का वास्तविक फल है। - - - आराधक आराधना करने वाला मानव आराधक कहलाता है। आराधना, आराध्य, आराधना का फल ये सब आराधक पर निर्भर हैं। आराधक ही सर्वोपरि है जैसा आराधक होता है, वैसे ही फल आदि प्राप्त होते हैं। यद्यपि निश्चय नय से आत्मा ही आराधक है, वही आराध्य है, वही आराधना है, वही शुद्धात्मापर्याय रूप परिणत होता है अतः वही आराधना का फल है। परन्तु फिर भी व्यवहार नय से ये चार भेद हैं। आराधक पुरुष को क्षपक कहते हैं, जो कर्मों का क्षय करने का इच्छुक है, जिसे कर्मक्षय करके शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त करने की इच्छा जागृत हुई है तथा जो कर्मों के क्षय की कारणभूत सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं की आराधना करने में तत्पर होता है, वह क्षपक आराधक कहलाता है। सल्लेखना कर्मों का क्षपण करने के इच्छुक प्राणी क्षपक चार प्रकार की आराधना की आराधना करने के लिए सल्लेखना (समाधि) स्वीकार करते हैं। वह क्षपक कैसा होना चाहिए वा उसके कौन से गुण वा कौन सी बाह्य सामग्री उपयुक्त है, उसे क्या करना चाहिए आदि, विस्तार से भगवती आराधना में कथन किया है। परन्तु इस छोटी सी 'आराधना सार' नामक कृति में आचार्य देवसेन ने गागर में सागर भर दिया है। प्रायोपगमन भरण, इंगिनीमरण और भक्त प्रत्याख्यान के भेद से सल्लेखना-मरण के तीन भेद किये हैं। जिस सल्लेखना में स्व और पर के द्वारा वैयावृत्ति की अपेक्षा नहीं है, वह प्रायोपगमन मरणPage Navigation
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