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[1] राजा दशरथ के संन्यास -विधान को और पत्नीसहित श्राकर्षक (लगनेबाले) राम के लिए राज्य ( देने) को सुनकर, [2] द्रोण राजा की बहिन ( कैकयी), (जिसका ) ( राम के प्रति ) स्नेह टूट गया ( था ), ( जिसके ) पैर लता- रूपी नूपुरों से लिपटे हुए और कान्तिसहित ( थे), [6] ( वह ) ( उस प्रोर) गई, जहां (राज) सभास्थान का पथ ( था ) (और) (सभास्थान में ) इन्द्र की तरह राजा (दशरथ) प्रासन पर स्थित ( थे ) । [7] ( वहाँ पहुँचने पर उसने कहा-) हे नाथ ! यह वह समय ( है ) ( जब) मांगा हुआ वर ( पूरा किया जाना चाहिए ) ( उसने कहा ) मेरा पुत्र (भरत) राज्य का पालन कर्त्ता रहे । इसी प्रकार होवे । तब गर्वसहित राम और लक्ष्मण बुलाए गए ।
[8] हे प्रिये !
22.8.
घत्ता - यदि तुम मेरे पुत्र (हो), तो इतनी आज्ञा पालन की जाए ( कि) छत्र, आसन ( सिंहासन) और पृथ्वी भरत के लिए दे दी जाए ।
[1] जब नराधिप (दशरथ) चिन्ता में डूबे हुए ( थे ), तब ( ही ) बलदेव (राम) मनवाला (राम) देखा गया । [3] प्रतिदिन (तुम) घोड़े और [4] प्रतिदिन (तुम) स्तुति
निज भवन को गए। [2] माता के द्वारा प्राता हुआ उदास फिर भी ( माता के द्वारा ) हँसकर प्रियवाणी से कहा गया - हाथी पर चढ़ते थे, आज बिना जूतों के ( नंगे) पैरों से कैसे ? गायकों के समूहों द्वारा स्तुति किए जाते थे, श्राज स्तुति किए जाते हुए कैसे नहीं सुने जाते हो ? [5] प्रतिदिन (तुम) हजारों चँवरों से पंखा किए जाते थे, आज तुम्हारे आस-पास में कोई भी क्यों नहीं है ? [6] प्रतिदिन तुम लोगों के द्वारा राणा (छोटे राजा) कहे जाते थे, प्राज (तुम) निस्तेज क्यों दिखाई देते हो ? [7] उसको सुनकर बलदेव ( राम ) के द्वारा कहा गया- भरत को सम्पूर्ण राज्य ही दे दिया गया है । [8 हे मां ! (मैं) जाता हूँ, (तुम) मन की अवस्था में दृढ़ रहना, जो ( मेरे द्वारा ) कष्ट पहुँचाया गया ( है ), उस सबको (तुम)
क्षमा करना ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ |
23.3
धत्ता - जिस तरह से माता पूछी गई ( उसके परिणामस्वरूप ) हाय पुत्र ! कहती हुई (वह) महादेवी अपराजिता धरती पर रोती हुई गिर पड़ी ।
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