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चमड़ी रह गई (है), मानो मेरा यहाँ दूसरा ही जन्म हुआ (है)। [6] (इसलिए) पैर पर्वतीय नदी के (समान) प्रवाह को धारण नहीं करते हैं, (तो) हे राजा (वह रानी) (उस) गन्धोदक को किस प्रकार पावे । [7] (कञ्चुकी के) उस कथन से राजा (दशरथ) के द्वारा (मन में) विचार किया गया (और वे) राम के पिता (दशरथ) अत्यन्त दुःख को प्राप्त हुए । [8] (उन्होंने सोचा) (यह) सत्य (है) (कि) जीवन चंचल (है), (तो फिर) वह कौनसा सुख (है), (जो) अनुभव किया जाता है, जिससे मोक्ष (शाश्वत पद) सिद्ध होता है ।
घत्ता-(इन्द्रिय-) सुख मधु की बिन्दु के समान (होता है), दुःख मेरु-पर्वत के समान लगता (दिखता) है । किया हुअा वह (ही) कर्म अच्छा (होता है), जिससे अजर-अमर पद प्राप्त किया जाता है।
22.3
[1] किसी दिन हम जैसों की (अवस्था) ऐसे (लोगों) के (समान) ही होगी, (जैसी) कञ्चुकी की अवस्था (है)। [2] (इस पर राजा के द्वारा विचार किया गया कि) मैं कौन (हूँ)? किसकी पृथ्वी (है)? किसका धन (है) ? सिंहासन (और) छत्र सभी अस्थिर (हैं)। [3] यौवन, शरीर, धन (और) (चल रहे) जीवन को धिक्कार (है)। संसार असार (है), धन हानिकारक (होता है)। [4] (इन्द्रिय-) विषय विष (हैं), बन्धु कठोर बन्धन (हैं), घर और पत्नी दुःख देने के कारण (बन जाते हैं)। [5] सुत (पुत्र) शत्रु (हो जाते हैं), (वे) उपाजित (धन) को छीन लेते हैं । बुढ़ापे और मरण के अवसर पर नौकर-चाकर क्या करते हैं ? [6] जीव की प्रायु हवा (की तरह) (चंचल) (होती है), (देखो) बेचारे घोड़े (युद्ध में) मारे गये (हैं)। रथ टूटनेवाले (होते हैं), मरे हुए (व्यक्ति) (सदा के लिए) ही गये, (वे) (कभी) नहीं लौटे। [7] शरीर तृण (के समान) ही (होता है), (वह) प्राधे क्षण में क्षय को प्राप्त होता है । धन धनुष (के समान) (होता है), (जो) प्रत्यञ्चा (रूपी दुर्गुण) से बांका रहता है। [8] पुत्री दुःखी करनेवाली (होती) है, माता मोह-जाल (होती है), चूंकि (भाई) (सम्पत्ति में) समान हिस्मा लेते हैं, इसलिए (ही) (वे) भाई (हैं)।
घत्ता - इनको (और) दूसरे सब को भी राम को देकर (मैं) स्वयं तप करूंगा । इस प्रकार विचार करके दशरथ स्थिर हुए ।
22.7
पत्ता-दशरथ दूसरे दिन (जब) राम को राज्य दे देते हैं, तब केकय देश के राजा की कन्या (कैकयी) मन में, (तपती है, दुःखी होती है), जैसे ग्रीष्म-काल में धरती तपती है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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