________________
अनुसन्धान-७७
महोपाध्याय श्रीसोमविजयगणिविरचिता संस्कृतगेयपञ्चस्तवी॥
. - सं. विजयशीलचन्द्रसरि
उपाध्याय सोमविजयगणि ए १७मा सैकाना महान जैनाचार्य जगद्गुरु हीरविजयसूरि महाराजना अत्यन्त प्रीति-विश्वासभाजन शिष्य हता, तेवा उल्लेखो अनेक रीते जोवा मळे छे, परन्तु तेमनी विद्वत्ता विषे खास कांइ जाणवा नथी मळतुं. उपाध्यायनी पदवी अमस्ती तो न ज मळी होय, एटले तेओ पण, तेमना समकालीन अन्य उपाध्यायोनी जेम ज, विद्वत्ता अने पाण्डित्यना स्वामी हशे ज. तेनो अक आछो अंदाज, अहीं प्रगट थई रहेली, तेमनी पांच संस्कृत गेय भक्ति-रचनाओ द्वारा मळे छे.
शुद्ध देशी ढाळोमां गवाती गुर्जर रचनाओ जेवी ज गेय रचनाओ, ते पण संस्कृत भाषाना बधां नियम-नियन्त्रणो जाळवीने, अक्षर तथा मात्रानो सुमेळ साचवीने रचवानुं काम सरल नथी. व्याकरण-काव्य-कोश आदि हस्तगत होय, रजूआतमां सहज माधुर्य तथा प्रसाद आणवानी सक्षम प्रतिभा होय, त्यारे ज आवी सरस रचनाओ शक्य बने छे. आ स्तवनो जोईशुं तो ख्याल आवशे के क्यांय शब्दो के मात्राओ के भावो मेळववा जतां खेंचताण नथी करवी पडी; क्यांय कोई पंक्ति कष्टथी के श्रमथी साध्य नहि जणाय; बधुं भीतरथी अनायासे ज, सहजताथी ज, फूटी आवतुं अनुभवाय.
आ उपाध्यायजीनी अन्य कोई रचना होवानुं के प्रगट थई होवा- प्रायः जाणमां नथी. ते जोतां तेमनी आ रचनाओ प्रथम वखत प्राप्त थई छे. आ रचनाओ शोधीने प्रकाशमां लाववानो यश मित्र अने कविवर्य मुनिराज श्रीधुरन्धरविजयजीने घटे छे. तेमना निजी संग्रहगत, २ पानांनी, सम्भवतः कर्ताना हस्ते लखायेली प्रतिना आधारे आ पांच गेय कृतिओ अहीं मुद्रित थई रही छे, आ माटे आपणे तेओना ऋणी रहीशुं.
कर्तानो समय १७मो सैको छे ते स्पष्ट छे.