Book Title: Anusandhan 2019 07 SrNo 77
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 56
________________ जून - २०१९ महोपाध्याय-श्रीसोमविजयगणिविरचिता संस्कृत-गेय-पञ्चस्तवी श्रीगुरुपदकमलं निजे, मानससरसि निधाय रे श्रीजिनवीरमहं नुवे, भविजनसङ्घशिवाय रे ॥ शिवशान्तिकारकचलननलिनं कमलकोमलकरतलं केवलालोकविलोकिताखिलनाकमर्त्यरसातलम् । संसारसागरपारगामी त्वमसि वीरविभो ! यथा तदपारपारावारतरणे स्यामलं मम कुरु तथा ॥१॥ देहि विभो ! मम शिवपदं, त्वं करुणारससिन्धो ! । भवभयनीतिमतो यते(तेः), समजगतीजनबन्धो ! ॥ . बन्धुवदमरशूलपाणे रोषदोषनिवारको विकटदृष्टिविषोऽपि भोगी कौशिकोऽमरनायको(कः) । भवता कृतो जिनराज ! पीडाऽतीव सोढा सुरकृता अपराधवत्यपि सङ्गमे जिन ! कृपादृष्टिरुदीरिता ॥२॥ मोहमहीधरकरगतं मामुद्धर जिन ! वीर ! रे हेतुमृते हितकारको मेरुमहीधरधीर ! रे ॥ धीरिमादिगुणौघबन्धुर-गतिजितामरसिन्धुरो विकटसंकटकोटिकारकवामकाममुधाकरो(रः) । मयि किङ्करे कुरु भूरिकरुणामिह भवेऽपि भवान्तरे त्वमकारि जगदुपकारविधये वेधसा भवनोदरे ||३|| यदि मम मानसमन्दिरे वस सलवं जिन वीर ! रे अहमतरं भवसागरे लब्धभवोदधितीर ! रे ॥ भवतीरदायक ! योगिनायक ! जन्तुतायक ! शुभविधे ! समभीतिवारक ! भुवनतारक ! शान्तिकारक ! शमनिधे ! । हरिहरसुरासुरवशीकारककामकुञ्जरकेसरी(रिन् !) करवाणि तावकवाणिमनिशं कुरु तथा भवतरुकरी(रिन् !) ॥४॥

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