Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ ६ बर्ष ४५, कि.१ मनकामत दक्षिण में गंगेयनमार ने एक पाश्वं जिनालय बनवाया था। मैररस वंश : अपने इस धर्मप्रेमी गगेयन की प्रार्थना पर राजा इरुंगोल कारकल का यह राजगंश हुमचा के परम जिनभक्त ने पार्श्वनाथ की दैनिक पूजा, आहारदान आदि के लिए राजाओं की एक शाखा ही था । यह बंश जैनधर्म का भूमि का दान किया था। वहां के किसानों ने भी अखरोट अनुयायी रहा। इसी वश के राजा वीरपाण्डय ने सन मोर पान का दान किया था तथा किसानों ने अपने १४३२ ई. में कारकल मे बाहुबली की ४१ फुट ५ इच कोल्हओं से तेल ला-लाकर दान में दिया था। ऊंची प्रतिमा निर्माण कराकर वहां की पहाड़ी पर स्थापित ऐसा उल्लेख मिलता है कि इस गजा को विष्णुवर्धन की थी जिसकी आज भी वन्दना की जाती है। इस वश ने हराया था। के विवरण के लिए देखिए 'कारकल' प्रकरण । अलप वंश: अंजिल वंश : इसका शासन-क्षेत्र तुलनाडु (मूडबिद्री के आस पास का क्षेत्र) था। दसवीं सदी मे तौलव देश के प्रमुख जैन नरेश प्रमख जैन. अपने आपको चामुण्डराय का वंशज बताने वाला केन्द्र थे मुहबिदी, गेरुसोप्पा, भटकल, कारकल, सोदे, यह वश बारहवी सदी मे उदित हुआ । इसका शासन-क्षेत्र हाइहल्लि और होन्नावर । इन में से कुछ तो अब भी प्रमुख वेणर था। वेणर ही इसकी राजधानी रही और इसका जैन केन्द्र के साथ प्रदेश तुलनाड के अन्तर्गत सम्भवत. पंजलि के कहलाता भी प्रदान किया था और अनेक जैन बमदियों के लिए था। यह वंश प्रारम्भ से अन्त तक जैनधर्म का अनुयायी था। यह वश दान दिया था। ये राजा १११४ ई. से लगभग १३८४ ई. रहा। " __ रहा। इसी वश के शासक तिम्मराज ने १६०४ ई. मे तक राज्य करते रहे। इस वंश का राजा कुलशेखर- बर. वणूर म बा वेणूर में बाहुबली की ३५ फुट ऊ ची प्रतिमा स्थापित की अलुपेन्द्र तृतीय मडबिद्री के पार्श्वनाथ का परमभक्त था। थी जो आज भी पूजित है। इस वंश के वशज आज भी देखिए 'मुडबिद्री' प्रकरण । विद्यमान हैं और सरकार से पेशन पाते हैं। (देखिए 'वेणूर' प्रकरण)। बंगवाडि वंश का वंश: अलुपवंश के बाद तुलनाड में इस वंश ने राज्य किया कर्नाटक के उपर्युक्त सक्षिप्त इतिहास पर विचार (देखिए 'मूडबिद्री')। करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस राज्य मे जैनधर्म संगीतपुर के सालुव मण्डलेश्वर : को विद्यमानता एव मान्यता अत्यन्त प्राचीन है। कम-से कम महावीर स्वामी के समय मे तो वहां जैनधर्म का सगीतपुर या साढुहल्लि (उत्तरी कनारा या कारवाड प्रचार था जो कि पार्श्वनाथ-परम्परा की ही प्रवाहमान जिला के समुद्र नगर में इस वंश ने पन्द्रहवीं शताब्दी मे धारा मानी जाए तो कोई बहुत बड़ी ऐतिहासिक आपत्ति राज्य किया। महामण्डलेश्वर सालुवेन्द्र भगवान चन्द्रप्रभ का बड़ा भक्त था। उसके मन्त्री ने भी पार्श्वनाथ का नही उठ सकती है, क्योकि पाननाथ यहां तक कि भगवान एक चैत्यालय पनाकरपुर में बनवाया था। नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष मान लिए गए हैं। इसी प्रकार कर्नाटक के लगभग हर छोटे या बड़े राजवश ने या तो चोटर राजवंश: स्वयं जैनधर्म का पालन किया या उसके प्रति अत्यन्त __ मडबिद्री को अपनी राजधानी बनाने वाले इस वंश उदार दृष्टिकोण अपनाया। मध्ययुग की ऐतिहासिक या के राजा १६८० ई. मे स्वतन्त्र हो गए थे। इस वंश ने राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए भी यह निष्कर्ष लगभग ७०० वर्षों तक मूडबिद्री मे राज्य किया। इनके अनुचित नही होगा कि कर्नाटक में प्रचुर राज्याश्रय प्राप्त गंशज और इनका महल आज भी मूडबिद्री में विद्यमान होने के कारण बहुसख्य प्रजा का धर्म भी जैनधर्म रहा है। वे जैनधर्म का पालन करते है और शासन से पेशन होगा। पाते हैं । (देखिए 'मूडबिद्री')

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