Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 7
________________ कर्नाटक में जैनधर्म 'यशस्तिलक चम्पू' तथा प्राचीन भारतीय राजनीति- हुणसूर तालुक) में था, जो कि आगे चलकर पश्चिम-मैसूर सिद्धान्त ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध 'नीतिबाक्यामत' की रचना और कुर्ग जिलों तक फैल गया। इस वंश से सम्बन्धित कौटिल्य के अर्थशास्त्र को सूत्र-शैली में की थी। प्राचीन अधिकांश शिनालेय ग्यारहवी-बारहवी सदी के हैं । किन्तु भारतीय राजनीतिक सिद्धान्तों के अध्ययन के सिलसिले मे पन्द्रहवीं शताब्दी में भी यह वश अस्तित्व मे था । ये चोल आज भी यह ग्रन्थ विश्वविद्यालयों मे पठिन-संदर्भित किया एन होयसल नरेशो के सामन्त प्रतीत होते हैं । इस वंश के जाता है। उपर्युक्त राजा ने ही लक्ष्मेश्वर मे 'गंग-कन्दर्प' अधिश राजा शैव मत को मानते थे किन्तु ११-१२वी जिनालय का निर्माण कराया था। इस वश के राजा जैन- सदी में ये जिनमत थे । धर्म के अनुयायी रहे। उपर्युक्त वश का सबसे प्रसिद्ध राजा वीगजेन्द्र चोल कोंगाल्व वंश : नन्नि चगाल्व ने चिक्क हनसोगे नामक स्थान पर देशीगण __ इस राजवश ने कर्नाटक के वर्तमान कुर्ग और हासन पुस्तकगच्छ के लिए जिनमन्दिर का निर्माण लगभग जिलो के बीच के क्षेत्र पर, जो कि कावेरी और हमवती १०६० ई मे क गया था। उमी स्थान की एक बसदि का नदियों के बीच था, शासन किया। उस समय यह प्रदेश उसने जीर्णोद्धार कराया था जिसके मम्बन्ध में यह प्रसिद्धि कोंगलनाड कहलाता था। इस वश का सम्बन्ध प्रसिद्ध थी कि उसका निर्माण श्री रामचन्द्र ने करवाया था। चोलवश से जान पडता है। सम्राट् राजेन्द्र चोल ने इसके सन् १०८० ई. के एक शिलालेख से, जो कि हनसोगे की पूर्वपुरुष को अपना सामन्त नियुक्त किया था। यह वश बमदि मे नवरग-मदा के द्वार पर उत्कीर्ण है. यह प्रतीत ग्यारहवी सदी मे अवश्य विद्यमान था (शिलालेख बहुत होना है कि इस चगाच तीर्थ मे आदीर, नेमीश्वर कम मिले है) और जैनधर्म का अनुयायी था। सोमवार आदि जिनमन्दिर थे जो भट्टारका मुनियो के सरक्षण में ग्राम में पुरानी बसदि एक पाषाण पर लगभग १०८० ई. थे एव चंगाल्व नरेश ने उनका जीर्णोद्धार कराया था। के शिलालेख से विदित होता है कि राजेन्द्र पृथ्वी कोगाल्व चगाल्व नरेश मरियपेगंडे पिल्वय्य ने 'पिल्दुविनारक इस वश के राजा ने 'अदटरादित्य' नामक चैत्यालय ईश्वर देव' नामक एक बसदि का निर्माण १०९१ ई. के का निर्माण अपने गुरु मूलसघ, कान र गण, तगारगळ गच्छ लगभग कराया था । मुनियो को भी आहार दान दिया था। के गण्डविमुक्ति देव के लिए कराया था और पूजा-अर्चना श्रवणबे गोल के १५१० ई. के एक शिलालेख से यह के लिए दान दिया था। आचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव का भी ज्ञात होता है कि इस वश के एक नरेश के मन्त्री-पुत्र वह बड़ा आदर करता था और उसने अपने शिलालेख के ने गोम्मटेश्वर की ऊपरी मंजिल का निर्माण कराया था। प्रारम्भ में उनकी बड़ी प्रशसा की है। लेख मे यह ी निगल वंश : उल्लेख है कि उसके शिलालेख की रचना चार भाषाओ उत्तर मैमूर के कुछ भाग पर राज्य करने वा। इन के ज्ञाता सन्धिविग्रहक नकुलार्य ने की थी। इस राजा ने वश के शासन सम्बन्धी उल्लेख तेरहवीं शताब्दी के प्राप्त अपने को औरेयपुर वराधीश्वर' तथा 'सूर्यवंशी-महामण्ड- होते है। अमरापुर तथा निडुगल्लु बेट्ट (जैन बसदि) के लेश्वर' कहा है। शिलालेखो से ज्ञात होता है कि राजा स्वय को चोलकुछ इतिहासकारों क मत है कि यह वंश चौदहवीं वश के तथा ओरेयुरपुरवराधीश कहते थे। शताब्दी या उसके बाद तक शासन करता रहा और अन्त उपर्युक्त वश के इरुगोल के शासन काल मे मल्लिसेट्रि तक जैनधर्म का अनुयायी बना रहा । जो भी हो, इस वश ने तलगेरे बमदि के प्रसन्न पाश्र्वनाथ के लिए सुपारी के के सम्बन्ध में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। दो हजारो पेडो के हिस्से दान में दिए थे। इसी राजा के चंगाल्व वंश: पहाड़ी किले का नाम कालाजन था। उसकी चोटियां इस वंश का शासन कर्नाटक के चगनाडु (आधुनिक ऊंची होने के कारण वह 'निडुगल' कहलाया। उसी के

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