Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04 Author(s): Padmachandra Shastri Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 6
________________ ४ बर्ष ४५, कि०१ अनेकान्त पूजा के लिए दान दिलवाया था। इसी प्रकार इस वंश के प्रतिमा इसी सान्तर वंश की देन है। जिनदत्तराय ने द्वारा एक जैन मन्दिर के निर्माण और पुलिगेरे (लक्ष्मेश्वर) अपना राज्य राज्य लगभग ८०० ई. मे स्थापित किया के शंख जिनालय के लिए भूमिदान का भी उल्लेख था। कारकल मे इस वंश ने लगभग १६०० ई. तक मिलता है। राज्य किया। सान्तर वंश: रट्ट राजवंश: जैनधर्म के परमपालक इस वश का मूलपुरुष उत्तर शिलालेखों से ही ज्ञात होता है कि इस वश का प्रथम भारत से आया था। वह भगवान पाश्वनाथ के उरगवंश पुरुष पृथ्वीराम था जो कि मैलपतीर्थ के कारेयगण के में उत्पन्न हुआ था। उसकी कुलदेवी पद्मावती देवी थी गुणकोति मुनि के शिष्य इन्द्रकीति स्वामी का शिष्य था। जो कि पार्श्व प्रभ की यक्षिणी है। इस देवी की अतिशय उनको राजधानी आधुनिक सौन्दत्ति (प्राचीन नाम सुगन्धमान्यता आज भी हमचा मे एक लोक-विश्वाम और पूज- वति) था। इस वश ने राष्ट्रकट वश को अधीनता मे नीयता में अग्रणी है । इस वंश की राजधानी पोम्बुर्चपुर लगभग ६७८ ई. से १२२६ ई. तक शासन किया। उसने (शिलालेखो में नाम) थी जो घिसते-घिसते हुमचा (हुवा) तथा उसके वशजो ने सोन्दत्ति में जिन मन्दिरो का निर्माण हो गई है। वहां पद्मावती का मन्दिर दर्शनीय है। राज- कराया। मुनियो के आहार आदि के लिए दान तथा महल के अवशेष भी हैं। यह स्थान उत्तर भारत के महा- मन्दिरो की आय के लिए कुछ गांव समर्पित कर दिए थे। बीरजी या राजस्थान के तिजाग जैसा लोकप्रिय है। इस वंश के एक शासक लक्ष्मीदेव ने १२२६ ई. में सान्तरवंश का प्रथम राजा जिनदत्तगय था। उसी अपने गुरु मुनि चन्द्रदेव की प्राज्ञा मे मल्लिनाथ मन्दिर का ने कनकपूर या पोम्बर्चपुर (हपचा) मे इस वश की नीव निर्माण कराके विविध दान दिए थे। डा. ज्योतिप्रसाद पद्मावती देवी की कृपा से डाली थी। इस वश द्वारा के अनुसार, 'मुनि चन्द्रदेव राजा के धर्मगुरु हो नही, बनवाए गए जैन मन्दिरो, दान आदि का विस्तृत परिचय शिक्षक और राजनीतिक पथ-प्रदर्शक भी थे। उन्ही की 'हमचा' के प्रसग में दिया गया है। पाठक कृपया उसे देख-रेख मे शासन-कार्य चलता था। स्वय राजा लक्ष्मीदेव अवश्य पढे। इस वश की स्थापना की उपन्यास जैसी ने उन्हें रट्ट राज्य संस्थापक-ग्राचार्य उपाधि दी थी। कहा कहानी भी वहाँ दी गई है। जाता है कि सकटकाल में उन्होने प्रधानमन्त्री का पद सान्तर वंश की एक शाखा ने कारकल में भी राज्य ग्रहण कर लिया था और राज्य के शत्रुओं का दमन करने किया। इसी जिनदत्तराय के वशज भैरव पुत्र वीर पाड्य के लिए शस्त्र भी धारण किए थे। सकट निवत्ति के ने कारकल में बाहबली की लगभग ४२ फुट ऊँची (४० उपरान्त वह फिर से साधु हो गए थे। वहकाणरगण के फुट ५ इच ऊची) प्रतिमा कुछ किलोमीटर दूर से किस प्राचार्य थे।" प्रकार लाकर सन् १४३२ ई. में स्थापित की थी, इसका गंगधारा के चालक्य: रोमांचक विवरण इस राजवश के शासको सहित कारकल सुप्रसिद्ध चालुक्य वश की एक शाखा ने गंगधारा के प्रसंग मे इसी पुस्तक में दिया गया है। इस प्रतिमा के (सम्भवतः प्राचीन पुलिगेरे या आधुनिक लक्ष्मेश्वर नगरी वर्शनों के लिए आज भी यात्री वहा जाते है और इस या इसका उपनगर। राजधानी में राष्ट्रकूटों के सामन्त के प्रतिमा को तथा वहां की चतुर्मख बसदि को देखकर पुल- रूप मे ८०० ई. से शासन किया। दसवीं सदी मे गंगधारा कित हो उठते है। दोनो ही छोटी वृक्षहीन सरल पहाड़ियों की प्रसिद्धि एक राजधानी के रूप मे थी। इस वश के पर है। यह स्थान मूडबिद्री से बहुत पास है। अरिकेशरी राजा ने कन्नड़ भाषा के महान जैन कवि पम्प कर्नाटक मे सान्तर राजवंश ने जैनधर्म की जो ठोस को भी आश्रय दिया था। उसके उत्तराधिकारी बट्रिग नीव डाली वह भूलाई नही जा सकती। श्रवणबेलगोली द्वितीय के शासनकाल में ही प्रसिद्ध जैनाचार्य सोमदेव सूरि गोम्मटेश्वर प्रतिमा के बाद दूसरे नम्बर की बाहुबली ने गगधारा में अपने निवास के समय सुप्रसिद्ध काव्यPage Navigation
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