Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 18
________________ १६, वर्ष ४० कि० १ (ग) मिसरस उक्कस्सओ उिदिबंधोस तरिसागरो नमकोडाकोडीयो ० ० सूत्र १, ५, १०। [मिथ्यात्वस्योत्कृष्ट : स्थितिबन्धः सप्ततिसाग रोपमकोटी कोट्यः ] यहां कोष्ठकगत [...] यह सन्दर्भ यहाँ निश्चित ही दोनो संस्करणों में छूट गया है । (घ) सोलसहं कसायाणं उक्कस्सगो ठिदिबधो बसलीस सागरोवम कोडाफोडीम्रो । ष० ख० सूत्र १, ६-६, १३ षोडशकषायामुत्कृष्ट: स्थितिबन्धश्चत्वारिंशत् कोटीको सागराणा [ सागरोपमानाम् ] वही वृति० । मांगे इस वृत्तिगत उत्कृष्ट स्थिति से सम्बद्ध प्रसंग का यथा -क्रम से षट्खण्डागम के इन सूत्रो से शब्दश मिलान किया जा सकता है- १६, १६, २२२६, ३०, ३३, ३६, ३६, ४२ (मा० प्र० स०२, पृ० ३१५ व ज्ञा० पी० २, पृ० ३७७-७८ ) (क) यहाँ वृत्ति में नपुंसकवेद को लेकर नोवगोत्र पर्यन्त उत्कृष्ट स्थिति को प्रगट करते हुए 'अयश कीर्ति' के आगे 'निर्माण' का उल्लेख रहना चाहिये था, जो नही हुआ है। प्रकान्त (ख) इसी प्रकार आहारकशरीरागोपांग और तीर्थंकर प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण करते हुए प्रारम्भ में 'आहारक शरीर' का भी उल्लेख किया जाना चाहिये था, जो नही किया गया है। प्रस्तुत वृत्ति में इस उत्कृष्ट कर्मस्थिति प्रसग के आगे यह कहा गया है सर्वत्र यावन्त्य. सागरोपमकोटी कोट्यस्तावन्ति वर्षशतान्याबाधा । कर्मस्थितिः कर्मनिषेक.। येषा तु अन्त - कोटी कोट्य. स्थितिस्तेषामन्तर्मुहूर्त आबाधा । आयुषः पूर्वकोटिनिभाग उत्कृष्टाबाधा, आवाधानां (ज्ञा० स० १. यह पाठ अशुद्ध दिखता है उसके स्थान मे कदाचित् ऐसा पाठ रह सकता है वाधा, कर्मस्थितिः कर्मनिषेकः ।' - इसका अभिप्राय यह होगा कि आयु कर्म के निषेक आधाधाकाल के भीतर उत्कर्षण-पण आदि की बाघा से रहित होते है, अर्थात् अबाधाकाल के भीतर उसकी निषेक स्थिति में उत्कर्षण आदि के द्वारा बाधा पृ० ३७८ 'आवाधोना') कर्मस्थितिः कर्मनिषेक इति । इस प्रसंग का मिलान यथाक्रम से षट्खण्डागम के इन सूत्रो से कर लीजिये तिणि वाससहसाणि आबाधा सूत्र १, ६-६, ५ ( पूर्व सूत्र ४ से सम्बद्ध) प्राबाघूर्णिया कम्मद्विवी कम्मणिसेश्रो । सूत्र १, ६ ६, ६ व ६, १२, १५, १८, २१, ३२३५, ३८ और ४१ । आहारसरीर श्राहारसरीरगोवंग - तित्ययररणामामुक्कगोद्विविधो अंतोकोडाफोडीए तोमुत्तमावाधा। सूत्र १, ६-६, ३३-३४ । रिया- देवाउबस्स उनकस्सओ दिउदिबंधोते तीसं प्रावाधा, सागरोमाणि पुव्यकोडितिभागी धावाधा कम्मद्विवी कम्मरिगसे। सूत्र १, ६-६, २२-२५ । यहां उपर्युक्त वृति मे धावु से सम्बद्ध 'आबाधोना ( मा० प्र० स० 'आबाघाना' ) कर्मस्थितिः 'कर्म स्थितिकर्मनिषेक" का अनुवाद नहीं किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि आयु कर्म के आबाधाकाल के भीतर अपकर्षण उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण के द्वारा उसकी निषेक स्थिति में कुछ बाधा नहीं होती, जिस प्रकार कि ज्ञानावरणादि अन्य कर्मों के आबाधा काल के भीतर अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण के द्वारा निषेक स्थिति में बाधा होती है। देखिये षट्खण्डागम सूत्र १, ६-६, २४ और २८ (०६, पृ० १६६ और १७१) । इसके आगे इसी वृत्ति में यह प्रसंग प्राप्त है जो शब्दश धवला से समान है एकेन्द्रियस्य पुनमिध्यात्वस्योत्कृष्टः स्थितिबन्ध एक सागरोपमम् । कषायाणा सप्त चत्वारो भागाः । ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तराय सातावेदनीयामुत्कृष्ट स्थितिबन्धः सागरोपमस्यत्रयः सप्तभागाः । नाम गोत्र- नोकषायाणां सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ ।' (क्रमशः ) नही होती, जिस प्रकार की बाधा ज्ञानवरणादि अन्य कर्मों की निषेक स्थिति मे सम्भव है। २. देखिये घवला पु०, पृ० १६४-६५, भागे जो वृत्ति में एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियादि की उत्कृष्ट स्थिति से सम्बन्धित अंकदृष्टि दी गई है वह भी यहां धवला में तदवस्थ है ।

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