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शिलालेखों के सर्वांगपूर्ण स्तरीय प्रकाशन की आवश्यकता
0 डा. ज्योति प्रसाद जैन
"शिलालेख" शब्द का सामान्य अर्थ है किसी शिला पल्लव, कदम्ब, चालुक्य, राष्ट्रकट, चोल, होयसल आदि या पाषाणखंड पर अंकित अथवा उत्कीर्ण अभिलेख । किन्तु अनेक राज्यवशों के इतिहास के प्रधान साधन उनके शिलाइसका उपयोग अब व्यापक अर्थों में होता है और इसके लेख ही है । गत दो-अढ़ाई हजार वर्षों के जैन इतिहास के अन्तर्गत वे समस्त पुरातन अभिलेख जो किसी स्थान के पुननिर्माण में भी जैन शिलालेखों से ही कल्पनातीत सहा. ऐतिहासिक भवनों, देवालयों, स्तंभों, स्मारकों, मूर्तियों, यता मिली है, उनसे नई प्रदेशों के, विशेषकर कर्णाटक कलाकृतियो, शिलापट्रों आदि पर उत्कीर्ण या अकित पाये आदि दाक्षिणात्य देशों के राजनैतिक इतिहास पर भी जाते है, सम्मिलित है। प्राकृतिक या उत्खनित गुफाओं अभूतपूर्व प्रकाश पड़ा है। अथवा गुहामंदिरों, तीर्थस्थानों आदि में प्राप्त शिलांकित १६वी शताब्दी ई. के पूर्वावं मे ही अशोक मौर्य के लेख तथा पाषाण के अतिरिक्त विभिन्न धातुओं से निर्मित शिलालेख एवं स्तम्भलेख प्रकाश मे जागे थे और स्टरलिंग मूर्तियां, यन्त्रों, आदि पर अकित लेख, और दानशासनों ने ग्वारखेल का हाथी गुफा शि० ले० खोज निकाला था । के रूप में लिखाये गये ताम्रपत्रो. या ऐसे ही अन्य शासना- तदनन्तर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के जनरल कनिंघम देशो आदि से युक्त लेख भी इसी कोटि में आते है। आदि ने उन्हे यत्र-तत्र प्राप्त अनेक शिलालेखो का परि___इतिहास के साधनस्रोतों मे शिलालेखीय सामग्री का चय दिया, स्मिथ, लईग और फुहरर ने मथुरा व आसभर्वोपरि महत्व निविवाद है । शिलालेख में जिन व्यक्तियों पास के ०ि ले प्रकाशित किगे, लुइसराइस ने मैसूर एव घटनायो एवं तथ्यों आदि का उल्लेख होता है, वे उसके कुर्ग का इतिहास वहाँ प्राप्त शि. लेखों के आधार से अकित कराये जाने के समय, तथा कभी-कभी कुछ पूर्ववर्ती लिखा, आर० नरसिंहाचारि ने श्रवण-वेलगोल में प्राप्त समग से सम्बद्ध वास्तविक होते हैं, अतएव प्रायः असंदिग्ध शि० लेखो को (पपी. कर्णा०, भा०२ में) प्रकाशित कर रूप से प्रामाणिक होते है। इसके अतिरिक्त, शिलालेख दिया । किन्तु उसके पूर्व ही, फ्रॉमीसी विद्वान डा. ए. बहुधा मैड़ो-सहस्रों वर्ष पर्यन्त अपने मूलरूप में प्रायः गिरनाट ने १९०८ ई० में अपने निबन्ध "रिपर्दोयर डी यथावत बने रहते हैं। भारतवर्ष में साहित्य सृजन तो ऐपीग्रेफी जैना" मे उस समय तक ज्ञात समस्त जैन शि० विभिन्न भापाओ मे विविध, विपुल एव उच्चकोटि का लेखो को प्रकाशित करा दिया था, जिसका सारांश होता रहा, किन्तु उसमे ऐतिहासिक विधा उपेक्षित रही- कालान्तर में हिन्दी में जैन सिद्धांत भास्कर (आरा) में क्रमबद्ध व्यवस्थित शुद्ध इतिहासलेखन की यहाँ प्रायः प्रवृत्ति भी प्रकाशित हुआ । इस प्रकार, वर्तमान शती के प्रारंभ ही नहीं रही। अत. यदि शिलालेखीय सामग्री प्रचुर मात्रा से पूर्व ही ज्ञात एव उपलब्ध शि० ले० पर विद्वत्तापूर्ण में उपलब्ध न रही होती, तो अनेक युगो अनेक प्रदेशों, ऊहापोह तथा नवीन शि० ले० की खोज, शोध एव प्रकाराज्यो, राजा-महाराजाओ, एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियो शन की प्रक्रिया द्रुतवेग से चल पड़ी थी। परिणामस्वरूप, के इतिहास का निर्माण ही असंभव होता। अशोक, मौर्य रायल एशियाटिक सोसायटी को बम्बई तथा बंगालऔर कलिंग चक्रवर्ती खारबेल जैसे महान सम्राटो के इति- बिहार-उड़ीसा आदि शाखाओ के जर्नलों, एपीग्राफिया हाम के मूग एवं एकमात्र आधार उन नरेशों के शिला- इडिका, एपीग्राफिया कर्णाटिका, कार्पस इन्सक्रिप्शनम लेख ही है। मातवाहन नरेश गौतमी पुत्र शातकीर्ण की इडिरम, इडियन एन्टीक्वेरी, मद्रास एपीग्रेफोकल रिपोर्ट, नानाघाट-प्रशस्ति, शक क्षत्रच रुद्रदामन प्रथम की जूनागढ़- मैसूर आकियोलाजिकल रिपोर्ट, साउथ इण्डियन इन्म. प्रशस्ति, मम्राट समुद्रगुप्त की प्राग-प्रशस्ति और चालुक्य क्रिप्शन्स, इण्डियन आकियोलाजी आदि की विभिन्न जिल्दो पुलकेशिन द्वि० की ऐहोल-प्रशस्ति उक्त नरेशों के व्यक्तित्व मे अनगिनत जनाजैन शिलालेख प्रकाशित हुए। जैन एव कृतित्व की एक मात्र एवं समर्थ परिचायक है। गंग, श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध, विशेषकर शत्रुजय, पाली