Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 137
________________ जमो मायरियाणं वय मुनि पद के योग्य नहीं हैं। पर, ऐसा होना नहीं करना भी मुनि-पद के अनुकूल नहीं। अस्तु हमारी दृष्टि से चाहिए क्योंकि समाज में आज भी सु-मार्ग लग्न आचार्य तो मुनि को बहुसंख्यक कुमारी-साध्वी परिवार को बढ़ाना पाए जाने का अपवाद नही-वे पाए भी जाते हैं। समय और पद दोनों ही रीति से वयं है। यद्यपि इस दीक्षा मार्ग के निमित्त कई संरक्षकों को दहेज जैसे दानव अभी एक ज्वलंत प्रश्न यह भी उभर कर सामने से मुक्ति भले ही मिल जाती हो। हम तो कुमारों को भी प्राया है कि क्या ऐसी सुदृढ़-सुरक्षित भूमि तैयार हो मुनि-दीक्षा देने से पूर्व दसियों वर्षों तक लगातार त्याग चुकी है, जो एक-दो नहीं, अपितु बिना किसी क्रमिक दीर्घ और क्रमिक नियम पालन का अभ्यास कराना ही उचित कालीन अभ्यास के, समुदाय रूप में ढेर सी कुमारियों और समझते हैं और ऐसे में ही "णमो आयरियाणं, णमो लोए कुमारों को दीक्षा देकर उनकी भावी-सुरक्षा व स्थिरता के सब्ब साहूणं" जैसे पदों की सार्थकता समझते हैं। प्रति पूर्ण निष्ठा की जा सके ? हम अभ्युदय की कामना करते हैं। पर, इस विषय में लोगों की दृष्टि जो भी हो, अभी हमारे सामने एक प्रश्न यह भी आया कि क्या हम तो यदा-कदा स्त्री जाति के प्रति अपवादों को पढ़. आचार्यों को ऐसी अपरिपक्व वय में दीक्षा देनी चाहिए? सुन चौंक जाते हैं कि कही पग डगमगा न जाएं ? या कोई हमने कहा-लोक बेढंगा है, यदि आचार्य किसी के आततायी अवसर देखकर त्याग की कमर ही न तोड़ दे? वैराग्य को दृढ़ न करे तो कहेगा ये संसार से उबारने के और यह आशंका इसलिए भी कि गत दिनों ही दिगम्बरेतर साधन नहीं जुटाते । और यदि आचार्य वैराग्य दढ़ करा जन-साध्वी..... के प्रति सत्य या मिथ्या (?) अनेकों उसे उधर ले जाते हैं तो कहेगा-ये उम्र नहीं देखते। सब अपवादों को सभी पढ-सुन चुके हैं जबकि दिगम्बर मार्ग में भांति लोकापवाद है। हमारी दृष्टि में तो साधु का कार्य उससे कठोर नियम और कठोर साधनाएँ हैं, और फिर वैराग्य में लगने-लगाने का ही है, वह इससे विरत क्यों आज के इस प्राततायी वातावरण में? होगा? यद्यपि यह ठीक है कि दीक्षाचार्य व्यवहार दृष्टि से उक्त स्थिति में कहीं ऐसा तो नहीं कि-यह श्रावकों दीक्षित से उसका उत्तरदायित्व निर्वाह कराने के प्रति का ही फर्ज है कि वे आचार्य को सांसारिक दूषित वाताबंध जाता है। उसका कर्तव्य हो जाता है कि वह शिष्या वरण से अवगत कराएँ और उन्हें ढेर-सी कुमारी और या शिष्य की पूरी-पूरी संभाल करें। पर, यह निर्वाह तब कुमारों की दीक्षा-प्रक्रिया से विरत करें। श्रावक और और कठिन होता है जब आचार्य पुरुष-जातीय और मनि-पद भक्त होने के नाते हम तो सारा दोष श्रावकों को दीक्षिता स्त्री-जाति हो क्योंकि मुनि-पद में रहते हुए वह ही दे सकते हैं और तब-जबकि श्रावकों की दृष्टि में स्त्री-जाति से सीधे निकट सम्बन्ध का अधिकारी नही। आचार्य आस्म-विभोर रहने वाले और सांसारिक प्रपंचों से एतावता वह शिष्या के अंतरंग को भी गहराई से नहीं दूर हों। वस्तु स्थिति क्या है? जरा सोचिए । पढ़ सकता, चौबीसो घण्टे उस परिग्रह की सार-संभाल वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, नई दिल्ली-२ (पृ० २३ का शेषांश) दो-दो स्तम्भ प्रकोष्ठों में कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन प्रतिमायें सन में ध्यानस्थ मुद्रा में (सं०० ६४) जिन प्रतिमा अंकित अंकित हैं। ठीक इसी प्रकार चारों ओर जिन प्रतिमाओं का है। बायीं ओर एक जिन प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकन है। प्रतिमाका आकार ४३६४ ६६ से०मी० है। उत्कीर्ण है। प्रतिमाका आकार ५४४३७४२३ सेमी. है। जिन प्रतिमा का पार्श्व भाग-संग्रहालय में जिन दूसरी मूर्ति में पद्मासन में जिन प्रतिमा (सं०२०५६) प्रतिमा के बाम पाश्वं भाग से सम्बन्धित दो प्रतिमायें का सिरोभाग है। प्रतिमा का आकार ४५४२७४१२ संग्रहीत हैं। प्रथम अलंकृत स्तम्भ प्रकोष्ठ के मध्य में पद्मा- से. मी. है।

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