Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 127
________________ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अनिवार्य-कारण श्री मुन्ना लाल जैन, 'प्रभाकर' अनादि काल से जीव के साथ दर्शन मोह (मिध्यात्व) 'त.दृशी जायते बुदिळवपायश्चतादृशा । लगा हुआ है। जिसके कारण यह जीव संसार की ८४ सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥' लाख योनियों में भटक रहा है । और दुःख सह रहा है। जिस जीव की जैसी होनहार होती है। उसकी वैसी सुखी होने के उपाय भी करता है, परन्तु सिद्धि नहीं होती " ही बुद्धि हो जाती है प्रयत्न भी उसी प्रकार का करने क्योंकि सुखी होने के सच्चे उपाय का इसको पता नहीं है। वह सच्चा उपाय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हैं। उसके बिना लगता है और उसे सहायक (निमत्त भी) उसी प्रकार के मिल जाते है। (भवितव्यता की व्युत्पत्ति) भवितु योग्य अनेक उपाय करने पर भी दु.खों से छुटकारा नहीं पाता जैसे कि पं० प्रवर प० दौलत राम जी ने 'छह ढाला' में भवितव्यम् तस्य भावा: भवितव्यता जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं और उसका भाव भवितव्यता है। कहा है, "मुनिव्रत धार अनन्तवार ग्रीवक उपजायो, हमारी दृष्टि से इसलिए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति केवल 4 निज आतम ज्ञान बिना सुख लेश न पायो। ताते जिन पुरुषार्थ से मानना आगमानुकूल नही बैठना । क्योंकि वर कथित तत्व अभ्यास करीजे, सशय विभ्रम मोह त्याग सम्यग्दर्शन रूपी कार्य की सिद्धी में पांच समवाय नियमतः आपो लख लीजे।" तथा मंगत राय जी ने बारह भावना होते हैं । उपादान (पदार्थ की कार्य का होने की योग्यता में कहा है, 'वीतराग सर्वज्ञ दोष बिन, श्री जिन की वाणी अर्थात (स्वभार) पुरुषार्थ, काल, नियति और निमिन इन सप्त तत्व का वर्णन जा में, सो सबको सुख दानी ।। बार पांच कारणों को सूचित करते हुए वनारसी दास जी नाटक बार इनका चितवन कर श्रद्धा उर धरना। मंगत इसी समय सार में कहते हैं। जतन से भव सागर तरना ॥' तथा इसी सम्यग्दर्शन को मोक्ष प्राप्ति की प्रथम सीढ़ी भी कहा है इसके बिना 'पद सुभाव पूरव उदय, निह, उद्यमकाल शास्त्रों का बहुत ज्ञान तथा क्रियाए भी. सम्यकपने को पक्षपात मिथ्यानपथ सरवगी शिवचाल ।। प्राप्त नही होती, 'मोक्ष महल की प्रथम सोढ़ी या बिन इसका आशय इतना है कि किसी एक कारण मात्र ज्ञान चरित्रा, सम्यकता न लहे सो धारो भव्य पवित्रा' से सम्यग्दर्शन रूपी कार्य की सिद्धि मानना एकान्तवाद इस सम्गग्दर्शन की प्राप्ति के विषय मे ५० प्रवर प० होगा। गोमदृसार कर्मकाण्ड गाथा ८७९ से ८८३ मे भी टोडरमल जी ने कहा है, 'भला होनहार है ताते जिस पाँच प्रकार के एकान्तवादियों का कथन आता है। उसका जीव के ऐसा विचार आये है कि मैं कौन हूँ मेरा कहा आशय भी यही है कि जो इनमें से किसी एक से कार्य की स्वरूप है। यह चरित्र कैसे बन रहा है ? मुझे इन बातन सिद्धि मानता है वह मिथ्या मान्यता और जो इन पांचों का ठीक करना ऐसा विचारते अति प्रीतिकर शास्त्र अध्य- के समवाय को स्वीकार कर उनसे कार्य सिद्धि मानता है यन करने को उद्यमवत होता है, सप्त तत्वो के स्वरूप को उसकी मान्यता सच्ची है। अब रही मिथ्यात के काल की जानकर उनका विचार करता है। जो सम्यग्दर्शन की बात । सो वह अनादि अनत और अनादि सांत दो भागो प्राप्ति का सच्चा उपाय है।' पृष्ठ २५, अब सम्यग्दर्शन में विभक्त है क्योंकि सर्वत्र अनत (जिसका कभी अन्त नही कब प्राप्त होता है। उसके लिये अष्टसहस्री पृ० २५७ होता) मानेंगे तो मिथ्यात् का कभी अन्त नहीं होगा, में भट्टाकलंक देव ने कहा है-- जबकि अनंते भव्य मिथ्या दृष्टियों ने मिथ्यात का नाश

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