Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 43
________________ जंगली छोटेलाल जी जैन की बिबलियो ग्रेफी का यह संशोधित परिवद्धित सस्करण जैनाध्ययन के अस्मुत्साही प्रेरक एवं प्रोत्साहक स्व० बाबूजी का सजीव स्मरण है। भारतीय विद्या के किसी भी अग पर विशेषाध्ययन या शोध खोज करने वालों के लिए जैन सदर्भों का उपयोग आज अनिवार्य सा बन गया है। जैन विद्या के अनुसधित्सुओं के लिए तो इसकी आवश्यकता महत्त्व एवं उपयोगिता असदिग्ध है। ग्रन्थ का मूल्य तीन सौ रुपये है, जो उसकी लागत एव उपादेयता को देखते हुए कुछ अधिक नहीं है । यो प्रस्तुत प्रकाशन में मुद्रण की भी कतिपय अशुद्धियाँ रह गई है। विभिन्न प्रकार की अन्य कई त्रुटियाँ, दोष एव कमियाँ भी रह गई प्रतीत हो सनती है किन्तु सबसे बड़ी आवश्यकता है उपयुक्त इडेक्स या अनुक्रमणिका की जिसके कारण ग्रन्थगत अधिकांश सदर्भों व्यक्ति, प्रकाशन आदि के विषय मे अपेक्षित सदर्भ या सदर्भों को पा लेना सहज सुगम हो सके। अभी इस मिलियोको के पूरे दो हजार पृष्ठों को पलटने पर ही अभीष्ट सूचन पाय या एकत्र किए जा सकते है । इस सन्दर्भ कोश का अशार्थ बनाने के लिए कम से कम तीन अनुक्रमणिकाओं का प्रकाशन आवश्यक है (१) प्रन्यानुक्रमणिका, जिसमे ग्रन्थगत समस्त पुस्तको, पत्रिकाओ, मालेको आदि का इंडेक्स हो (२) लेखानुक्रमणिका, जिसमे प्रथमत सन्दर्भों ; के लेखको, सपादकों आदि का इडेक्स हो; और (३) सामान्य नामानुक्रमणिका, जिसमे ग्रन्थगत विभिन्न सदर्भों मे प्राप्त समस्त व्यक्तिनामो, स्थलादि नामो अन्य व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का इडेक्स हो । वैसे ग्रन्थ की तीसरी जिल्द के रूप मे ऐसा एक इडेक्स प्रकाशित करने की योजना प्रारंभ से ही थी, किन्तु कतिपय अपरिहार्य कारणो से वह अभी संभव नही हो सका । एक जैन विद्यारसिक जैन मनीषी की साधिक तीन दशकों की स्वान्तः सुखाय साधना एवं प्रयास द्वारा निर्मित और और उन्ही से संरक्षित सम्पोषित वीर सेवा मंदिर दिल्ली जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक जैन संस्था द्वारा प्रकाशित इस संदर्भ ग्रन्थ का यह अधूरापन खटकने वाला है। हमे आशा है कि उक्त संस्था के पदाधिकारी गण इस अभाव की पूर्ति करने में यथासंभव शीघ्र तत्पर होंगे। इसके अतिरिक्त, इस बिबलियो ग्रेफी में १६६० ई० पर्यन्त के ही सदर्भ समाविष्ट है—कुछ एक १९६० से • ९६५ तक के भी सम्मिलित कर लिए गए है, और कई एक १६६० से पूर्व के भी छूट गए लगते है । अतएव, ग्रन्थ की तीसरी जिल्द मे उपरोक्त अनुक्रमणिकाओं के अतिरिक्त एक शुद्धिपत्र भी दिया जा सकता है, और संभव हो तो १९६० से पूर्व के जो संदर्भ छूट गए है उन्हें भी एक परिशिष्ट के रूप में सम्मिलित किया जा सकता है। १९६० चा भी अग्रेजी आदि पाश्वात्य भाषाओं मे जैन सम्बन्धी विपुल साहित्य प्रकाशित हो चुका है। क्या ही अच्छा हो कि प्रस्तुत बिबलियो की के दसवर्षीय ( १९६१-७०, १९७१-८०, १९८९-९०) पूरकों के रूप मे इंडेक्स युक्त प्रकाशनों की योजना भी यथा संभव शीघ्र कार्यान्वित की जा सके । । जैन विद्या के विभिन्न अंगों से सम्बन्धित साहित्य पाश्चात्य भाषाओ मे जितना अद्यावधि प्रकाशित हो चुका है, उसका कई गुना भारतीय भाषाओं में, विशेषकर हिन्दी प्रकाशित हो चुका है उसमे भी शोध-खोज परक विपुल स्तरीय सामग्री प्राप्त होती है अतएव तत्सबधी सदर्भकोशों के निर्माण एवं प्रकाशनको भी महती आवश्यकता है। वीर सेवा मंदिर जैसी किसी भी प्रतिष्ठित एवं साधन सम्पन्न साहित्यिक सस्था इस अतीव उपयोगी कार्य को सुयोग्य निर्देशन में सम्पन्न करा सकती है । । ऐसी योजनाओं में व्यावसायिक हानि-लाभ की अपेक्षा नहीं की जाती, यद्यपि यदि देश-विदेश के विश्व विद्यालयों, महाविद्यालयो शोध संस्थानों, पुस्तकालयों आदि के संचालक ऐसे उपयोगी सदर्भ कोशों को कम करके संग्रह करे तो उनके निर्माणकर्ताओ एवं प्रकाशको को तो प्रोत्साहन मिलेगा ही, जिजागु मध्येताओं को भी अतीव लाभ होगा, तथा जैनविद्या विषयक शोध-खोज एव साहित्य निर्माण में भी द्रुतवेग से अभूतपूर्व गति होगी । 00

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