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२८४० कि०२
अनेकान्तं
का सम्बन्ध आयुर्वेद से नहीं है सभी कृतियां जैन दर्शन, जैनाचार, स्तुतिविद्या आदि से सम्बन्धित है । अतः वर्तमान मे उपलब्ध उनके प्रथो के आधार पर यह कह सकना कठिन है कि उन्होने आयुर्वेद के किसी ग्रंथ की रचना की होगी ।
इस संदर्भ मे एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नवम ५ ताब्दी के विद्वान श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रथ कल्याणकारक में स्पष्टता पूर्वक इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि आर्य समन्तभद्र ने आयुर्वेद विषय को अधिकृत कर किसी ग्रथ की रचना की थी जिसमे विस्तारपूर्वक अष्टाग का प्रतिपादन किया गया है। उन्होने आगे यह भी स्पष्ट किया कि समन्तभद्र के उस 'अष्टांग संग्रह' ग्रथ का अनुसरण करते हुए मैने सक्षेप मे इस कल्याणकारक' ग्रथ की रचना की है ।' श्री उग्रादित्याचार्य के इस उल्लेख से से यह असदिग्ध रूप से प्रमाणित होता है कि उन काल मे श्री समन्तभद्र स्वामी का अष्टाग वैद्यक विषयक कोई महत्वपूर्ण ग्रथ अवश्य ही विद्यमान एव उपलब्ध रहा होगा ।
सिद्धान्त रसायन कल्प
इसी सदर्भ में एक यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि 'कल्याणकारक ग्रंथ की प्रस्तावना मे श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने आचार्य समन्तभद्र स्वामी की अद्वितीय विद्वत्ता का निरूपण करते हुए उनके द्वारा 'सिद्धान्तरसायन कल्प' नामक वैद्यक प्रथ की रचना किए जाने का उल्लेख किया है । वे लिखते है कि पूज्यपाद के पहले महर्षि समन्तभद्र हर एक विषय में अद्वितीय विद्वता को धारण करने वाले हुए। आपने न्याय सिद्धान्त के विषय मे जिस प्रकार प्रोढ़ प्रभुत्व प्राप्त किया था उसी प्रकार आयुर्वेद के विषय मे भी अद्वितीय विद्वत्ता प्राप्त की थी। आपके द्वारा सिद्धान्त रसायन कल्प नामक एक वैद्यक प्रथ की रचना की गई थी जो अठारह हजार श्लोक परिमित थी परन्तु आज वह उपलब्ध नही है और हमारी उदासीनता के कारण सम्भवतः अब वह कीटों का भक्ष्य बन गई है और कही१. अष्टामध्यखिलमंत्र सम
प्रोक्त, सविस्तरमथो विभवं विशेषात् ।
कहीं उसके कुछ श्लोक मिलते है जिनको यदि संग्रह किया जाय तो २-३ हजार श्लोक सहज हो सकते हैं। इस ग्रंथ की मुख्य विशेषता यह है कि असा धर्म प्रेमी आचार्य ने अपने ग्रंथ मे औषध योगो में पूर्ण अहिंस धर्म का ही समर्थन किया है। इसके अलावा इस ग्रंथ में जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग मी दनुकूल दिए गए है। इसलिए अर्थ करते समय जैमन की कपासे को ध्यान मे रखकर अर्थ करना ही अभीष्ट । उदाहरणार्थ 'रत्नत्रयोषध" का उल्लेख ग्रंथ पे आया है, सर्व सामान्य दृष्टि से इसका अर्थ होगा- 'वज्रादि रत्नत्रयों के द्वारा निर्मित औषधि - परन्तु वा नही है। जैन सिद्धान्त में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारिव को रत्नत्रय के नाम से जाना जाता है । यह रत्नत्रय जिस प्रकार मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिष्या चरित्र रूपी दोश्रय के निराकरण में समर्थ है उसी प्रकार आयुर्वेदीय रसशास्त्रोक्त पारद, गन्धक और धातुपधातु आदि तीन इस्यों के सम्मिश्रण से निर्मित तथा अमृतीकरण पूर्वक तैयार किया गया रसायन वात-पित्त कफ दोषत्रय का नाश करता है । अतएव इस रसायन का नाम 'रत्नत्रयोषष' रखा गया है ।"
आचार्य समन्तभद्र ने अपने 'सिद्धान्त रमायन कल्प' नामक उक्त ग्रंथ मे विभिन्न औषध योगो के निर्माण में घटक द्रव्यों का जो प्रमाण (मात्रा) निर्दिष्ट किया है उसमे भी जैन धर्म सम्मत सख्या प्रक्रिया का अनुसरण किया है जो अन्यत्र नही मिलता है। इस ग्रथ में कथित संख्यासकेत को केवल वह समझ सकता है जिसे जैनमत की जानकारी है। जैसे - 'रससिन्दूर नामक रम औषधि की निर्माण प्रक्रिया में कथित निम्न या संकेत दृष्टव्य है" सूत केसरि गंधकं मृगनवासारदुमान" । यहाँ पर द्रव्य के प्रमाण के लिए जिस सख्या का संकेत किय गया है वह सहज और सर्व ज्ञात नहीं है जैसे 'सूत केसरि यहा सूत शब्द से पारद और केसरि शब्द से सिंह अभिप्रेत है जिससे पारद सिंह प्रमाण में लिया जाय - यह अर्थ ध्वनि संक्षेपतो निदित तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ॥ कल्याणकारक २०/८६ २. कल्याणकारक की प्रस्तावना, पृष्ठ ३६