Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 73
________________ परा सोचिए पैराग्यमयी मुद्रा संबंधी विधान, अधिकारों और पद-आदि ... 'प्रौपशमिकाविभव्यत्वानांच': संबंधी क्रियाओं में अगुमा-मुखिया बनने या पर-प्रेरणावश उनमें विघ्न या भेद-परक सूचनाएं प्रसारित करने का मोक्ष में जिन भावों का अभाव होता है, तत्संबंधी यह अधिकार श्रावकों को नहीं-जैसा कि किया गया है। हां, सूत्र है। इसका अर्थ ऐसा किया जा रहा है कि वहाँ धावकों का कर्तव्य है कि वे ऐसे अवसरों पर साधु को औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक भावों का और दिख-दिखावे, जयकारों या विरुदावली-गानों आदि मे पारिणामिक भावों में से भव्यत्व भाव का अभाव हो जाता न भरमाएं बल्कि उन्हें उनके कर्तव्य-निर्वाह हेतु-आत्म- है। हम यहाँ मायिक भावों को इसलिए छोड़ रहे हैं बलवर्धक दशभक्त्यादि जैसे धर्मानुष्ठानों के विशदरीति से कि-लोग वहाँ क्षायिक भावों का रहना कहते हैं और करने का अवसर ही प्रदान करें-उन्हें जय-जयकार में पारिणामिक में से जीवत्व को भी स्वीकार करते हैं घेरें नहीं जैसा कि वर्तमान में चल पड़ा है। जरा निम्न भव्यत्व तो वहाँ है ही नहीं। पंक्तियां भी देखिए, कि इनमें कैसे सामंजस्य बैठेगा? विचारणीय यह है कि उक्त सूत्र में 'आदि' शब्द का 1. 'आचार्य श्री (शान्तिसागर ने सन् १९५२ में भाव किस मर्यादा में है ? न्यायसंगत तो यही है कि 'आदि' २६ अगस्त शुक्रवार को वीरसागर महाराज को पट्टाचार्य शब्द सदा ही प्रसंगगत शेष सभी के लक्ष्य में होता हैपद प्रदान किया, उन्होंने कहा-हम स्वयं के संतोष से वह किसी को छोड़ता नहीं। यहां भावों का प्रसंग है। अपने प्रथम निम्रन्थ शिष्य वीरसागर को प्राचार्यपद देते योर सूत्र में प्रथमभाव के बाद आदि शब्द होने से पांचों है...।' दि० 'जैन साधु परिचय' पृ० ५८ ही भावों का ग्रहण होना चाहिए और तदनुसार मोक्ष में २. 'चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी, पांचों ही भावों का अभाव स्वीकार करना चाहिए। पाठक तच्छिष्य भाचार्य श्री जयकीति जी उनके पट्टशिष्य सोचें कि-क्षायिकभाव और पारिणामिक भावों में जीवत्व भाचार्य देशभूषण जी महाराज'' -एक पोस्टर के रह जाने जैसा अर्थ सूत्र के किस भाग से फलित किया ३. जैन परम्रा में आचार्य शान्तिसागर से आरम्भ गया है ? हुई बाचार्य श्रृंखला में मुनि श्री विद्यानंद पांचवें आचार्य - नवभारत २६ जून ८७ हमारी दृष्टि में उक्त सूत्र से ऐसा फलित करना सभी भौति न्याय-सगत होना चाहिए कि-मोक्ष में सभी भांति, ४. दिगमरब आ० १०८ अजीतसागर जी महाराज को भी शान्तिसागर जी महाराज के चतुर्थ पट्टाधीश के सभी प्रकार के मभी भाव-जो जीव-(संसारी) अवस्था रूप में प्रतिष्ठित किया गया।' के हैं-नहीं रहते । मोक्ष होने पर शुद्धचेतना मात्र ही शेष -जैन गजट ३० जून ८७ रहता हैं जिसका उक्त भावों से स्वाभाविक कोई संबंध नहीं। बिकारी (कर्म-सापेक्ष) अवस्था का नाम जीव है, ५. 'ला० रनदेशभूषण मुनिमहाराज के करकमलों जो कर्माधार पर जीता-मरता है।-कर्म-सापेक्षता के द्वारा ही. 'अपने परस्थान पर आचार्यरल पद नियोजित कारण उसी के पांच भाव हैं और शुद्ध-चेतना इन सभी .."किये हैं। परमपूज्य १०८ बाहुबली जी बालाचार्य ही भावों से अछूता-'चिदेकरस-निर्भर है। इसी भाव में श्री माचार्यरत्न।' -एक पोस्टर' वीरसेन स्वामी ने कहा है सिवा ण जीवाः' और तथ्य भी सलवार भविष्य में दिगम्बर गुरुओं को लेकर पुनः कभी कोई यही है। जरा सोचिए । सूत्र में 'भव्यत्वानां ' क्यों दूषित व भ्रामक वातावरण न बने, इसके लिए आप कैसा, कहा ? इसे हम फिर लिखेंगे। क्या उपाय सोचते हैं ? जरा-सोचिए।

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