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शत-शत बार सादर नमन
हम नेताओं को राजा मानते हैं-सन्मान के साथ। किसी को छोटा, किसी को बड़ा । सभी का अपना शासन है-कई भागों में विभक्त-भारतीय, प्रादेशिक, नागरिक और स्थानीय संस्थाओं आदि के रूप में। सभी मोर्चे संभालने और विवाद-विजयी-स्व-दृष्टि मनवाने में निपुण । पुराने राजा लड़ते थे शासन के लिए। और गणतंत्र में इनकी लड़ाई है सेवा के नाम पर, सेवक बनकर सेवा में आने के लिए। वे द्रव्य और भूमि को आत्मसात् करते थे और इनको मिलते हैं उपहारयश, प्रतिष्ठा, मान और सन्मान, बुराई-भलाई भी। आज कम राजा होंगे ऐसे--जो इन सम्पदाओं में से किसी एक से महरूम रहे हों। कइयों को तो इनमें से बहुत कुछ मिल चुका होगा-कई कई बारग्रामों, नगरों, जंगलों तक में। इनको बहुत कुछ मिल चुका होगा-त्यागियों, विद्वानों, सेठों और साधारण जनता के बीच। फिर भी इन्हें संकोच नहीं होता बार-बार इनके ग्रहण करने से । आखिर, संकोच हो भी तो क्यों ? इनकी तो आदत अनादि से पर को ग्रहण करने की रही है । जैनी नाम धरा कर भी ये जैन के सिद्धान्त 'अपरिग्रह' को नहीं जान पाए हैं। फलतः-- स्वयं परिगह में डूबे हैं, त्यागियों को परिग्रह के चक्कर में फंसाते हैं -संस्थाओं के उत्सवों में घेरकर, उनकी जय बोलकर और अपने मन्तव्यों पर उनकी मोहरें लगवाकर। ये सब जैन हैं - जैनत्व की अभ्यास दशा में। कभी इनका ये परिग्रह छूट जायगा और कल्याण होगा इनका और समाज का। विरले ही संकोची और सच्चे त्यागी आदि होंगे जो इनके चक्कर से बच पाए हों। धन्य हैं चक्करों से बचने वाले-नग्न दिगम्बर मुनि, व्रती-श्रावक और निःस्पृह नेताओं को। सबको हमारा सादर नमन। वार-बार नमन, सौ बार नमन।
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कर्म परवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये। पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥
__कर्मों के आधीन, नश्वर, दुखों से मिश्रित और पाप के कारणभूत सांसारिक सुख की चाहना नहीं करना, नि:कांक्षित अंग है।
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