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"१०वीं शताब्दी के जैन काव्यों में बौद्ध दर्शन को समीक्षा"
0 जिनेन्द्र कुमार जैन साहित्य समाज का दर्पण है। इसलिए समाज की १०वीं शताब्दी के जैन काव्य ग्रन्थों में प्रतिपादित सभ्यता एवं संस्कृति के लिए तत्कालीन साहित्य का बौद्ध दर्शन की समीक्षा को निबन्ध में प्रस्तुत करने का अध्ययन अपेक्षित है। कवि अपने विचारों को व्यक्त करने प्रयत्न किया गया है । जिसमें बौद्ध दर्शन के निम्न बिदुओं के लिए किसी कथा के माध्यम से उस समय की सामाजिक, पर चर्चा की गई है .आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, दार्शनिक आदि परिस्थितियों
१. अनात्मवाद (नैरात्मवाद): अथवा मान्यताओं की झांकी प्रस्तुत करता है।
२. क्षणिकवाद : जैन संस्कृति एवं साहित्य के विकास मे मध्ययुगीन ३. प्रतीत्य समुत्पादवाद (कारण-कार्यवाद): जनाचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । यद्यपि इस युग ४. शून्यवाद : के साहित्य से साम्प्रदायिक विरोध एव वैमनस्य की परम्परा ५. निर्वाण (मोक्ष): परिलक्षित होती है, फिर भी जैनाचार्यों ने महिष्णुता,
अनात्मवाद :--जगत को नश्वर, क्षणविध्वंशी एव समभाव, उदारता अहिंसा एव अनेकान्त प्रादि सिद्धान्तो अनित्य मानने वाला बौद्ध दर्शन आत्मा (जीव) की भी के माध्यम से उच्च आदर्श प्रस्तुत किया है।
नित्यसता को स्वीकार नहीं करता। प्रत्येक वस्तु क्षणिक मध्ययुग, जनसाहित्य में वणित धार्मिक एवं दार्शनिक है, अतः यदि पचस्कन्ध' को आमा मान भी लिया जाय, विचारों के मन्थन की दृष्टि से १०वी शताब्दी मे लिखा तो उसे क्षणिक (अनित्य) माना जायेगा, नित्य नही । गया जैन साहित्य विशेष महत्व का है। इस शताब्दी के इसलिए आत्मवादी मतो द्वारा आत्मा को नित्य मानना जैन साहित्य में प्राकृत भाषा मे निबद्ध विजय सिंह सूरि कृत उचित नहीं है। बौद्ध दर्शन शरीरपर्यन्त ही जीव की सत्ता 'भुवनसुन्दरीकहा' धार्मिक एवं दार्शनिक मामग्री की दृष्टि स्वीकार करता है अर्थात शरीर के नाट होते ही जीव पच से महत्वपूर्ण कृति है। अपभ्रश साहित्य मे पुष्पदन्त कृत स्कन्ध-समुच्चय (रूप, विज्ञान वेदना, सज्ञा और सम्कार) महापुराण, णायकुमार चरित, जसहर चरिउ, वीर कवि कृत का समूह होने के कारण अन्य रूप धारण कर लेता है। जम्बू सामिचरिउ, हरिषेण कृत धम्मपरिक्खा, मुनि राम
आ. वीरनन्दि ने आत्मा को नित्य और ज्ञानधारा सिंह कृत करकड चरिउ तथा संस्कृत साहित्य में सोमदेव सूरि कृत 'यशस्तिलक चम्पू' नीति वाक्यामत, वादीभ सिंह
रूप ही माना है।' समस्त क्रियाओं का मूल आत्मा को
मानते हुए भी जगत को क्षणिक मानने के कारण बौद्ध सूरि कृत गचितामणिवीरनन्दि कृत चन्द्रप्रभचरितं,सिद्धर्षि कृत उपमितिभवप्रपच कथा हरिसेणकुत वृहत्कथा, कोश ।
दर्शन में आत्मा की पृथक एवं नित्यसत्ता स्वीकार नही की एव अमितगति कृत धर्म परीक्षा आदि प्रमुख कृतियां हैं, गई।' मोमदेब सूरि ने बौद्ध दर्शन की जीव सम्बन्धी जिनमें तत्कालीन धर्म एव दर्शन की पर्याप्त सामग्री मान्यता को स्पष्ट करते हुए कहा है, कि-जो बौद्ध मरे उपलब्ध है।
हए प्राणी का जन्म स्वीकार करते हैं और जो ऐसे धर्म को उन ग्रन्थों मे जैन धर्म एव दर्शन के साथ-साथ वैदक, देखते हैं जिसका फल प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं है। ऐसी उनकी चार्वाक, बांद, सांख्य न्याय, वैशेषिक, शैव, वेदान्त आदि मान्यता युक्तियुक्त नही है, मात्र प्रामक है।' भारतीय दर्शनो का तुलनात्मक वर्णन किया गया है । बौद्ध दर्शन के उपर्युक्त आत्मा सम्बन्धी मान्यताओं की