Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 93
________________ एक प्रकाशित कृति प्रमरसन रिड १७ पञ्चम परिच्छेद एक दिन वह सुव्रत मुनि से मेंढक की इस वृत्ति का कारण अमरसेन कुशलता पूछने के बाद वइरसेन से वेश्या के पूछती है-"मेंढक तेरा पूर्वभव का पति है, इसीलिए वह गधी बनाए जाने का कारण पूछते हैं । वइरसेन उत्तर देते तेरे आगे आगे चलता है।" मुनि द्वारा यह रहस्य प्रकट हुए कहता है कि इस वेश्या ने मुझे छला है। कपट पूर्वक करते ही भयदत्ता का मेंढक के प्रति स्नेह बढ़ जाता है। इसने मेरा आम्रफल तथा पांवड़ी ली है। अमरसेन वइर- वह उस मेंढक को वहां से लाकर अपनी बावली में रखती सेन से ऐमा ज्ञात कर वेश्या से अपनी वस्तुयें लेने और और जिनेन्द्र भाषित दश धर्म की शिक्षा देती है। एक उसे मनुष्य रूप देने के लिए कहता है। वदरसेन गधी दिन राजा श्रेणिक महावीर के समवसरण-दर्शन के लिए को वेश्या बनाकर अपनी वस्तुयें ले लेता है । वहरसेन को घोषणा कराते हैं। नगरवासियों के साथ सोत्साह यह यूवराज पद दिया गया। अमरसेन वइरसेन दोनों भाई मेंढक भी मुंह मे कमल की एक पांखुड़ी दबाकर जिनेन्द्र एक दिन चारण युगल मुनियों को आहार कराते है। की पूजा के लिए जाता है। मार्ग में संकीर्णता देखकर वह आहार कराते हए उन्हें अपने पूर्व भव का स्मरण होता है। हाथी के नीचे अपनी सुरक्षा समझ कर चलने लगता है उन्हें याद आता है कि पूर्वभव मे वे धण्णकर पुण्णकर कि चलते चलते वह हाथी के पैर तले आकर मर जाता नाम के कर्मचारी थे, उन्होने मुनियों को आहार कराकर है। मरणकाल में पूजा के शुभ भाव रहने से वह मेंढक उनसे धर्मोपदेश सुना था। इस भव मे मुनि से अपने पूर्व मरकर देव हुआ। भव तथा सौतेली मां के दोषारोपण सम्बन्धी कारण ज्ञात ___अमरसेन मुनि कहते हैं हे राजन ! इसी प्रकार कुसुकर दोनों भाई नगर में आते हैं। यहा आकर उन्होने मान्जलि व्रत का महात्म्य है। इसकी साधना से स्वर्ग चतुर्विध दान दिया; कुआं, बावली, सरोवर तथा मन्दिर और मोक्ष प्राप्त होता है। मदनमञ्जूषा स्वर्ग गयी और चक्रवर्ती रत्नशेखर तथा उसका सेनापति घनवाहन दोनों निमिन कराये। आचार्य देवसेन से दोनों दीक्षित हए । मुनि व्रत धारण कर तप करते हुए कर्म-विनाशकर मोक्ष बारह प्रकार का तप करते हुए वे विहार करते है। राजा गये। रत्न शेखर राजा वज्रसेन और रानी जयावती का देवसेन और रानी देवश्री इन दोनों अमरसेन वइरसेन पुत्र था। विद्याधर धनवाहन से उसकी प्रीति हो गयी थी। मुनियों के दर्शनार्थ आते है। धनवाहन के साथ रत्नशेखर अढाई द्वीप की यात्रा करता अमरसेन राजा देवसेन को सम्यग्दर्शन और उसके प्रथम कारण पूजा का महात्म्य समझाते हुए कहते हैं सिद्धकूट जिनालय में पूजा करते समय उसे मदनकुसुमावलि और कुसुमलता दोनों बहिनें जिनेन्द्र पूजा के मञ्जूषा नामक कन्या दिखाई दी। मदनमञ्जूषा भी इसे लिए पुष्प चयन करते समय सर्प द्वारा काटे जाने से मर देखकर कामाक्रान्त हुई। वह इसे अपने घर ले जाती है कर पूजा के भाव स्वरूप स्वर्ग मे देवाङ्गनायें हुयी। पूजा और अपने पिता से अपनी मनोव्यथा प्रकट कर देती है। की अनुमोदना करने से प्रीतिकर यक्षाधिपति हुआ था तथा पिता स्वयंवर रचाते है और स्वयंवर में इसका विवाह कुछ भवों के उपरान्त उसने मोक्ष भी प्राप्त किया। रत्नशेखर से कर देते हैं। षष्ठ परिच्छेद घनवाहन के चारणमुनि अमितगति से रत्नशेखर की मुनि अमरसेन राजा देवसेन के लिए पूजा के फल से मदनमञ्जूषा मे हुई प्रीति का कारण जानने की इच्छा मेंढक के देव होने का वृत्तान्त सुनाते हुए कहते है राजन् ! व्यक्त करने पर मुनि कहते हैं कि आप तीनों का पूर्वभव से पूर्वभव मे मेढक राजगृही नगरी का नागदत्त नामक सेठ सम्बद्ध है। मंगलावती के राजा जितशत्रु का श्रुतकीति था। भयदत्ता नाम की उसकी सेठानी थी । नागदत्त आर्त- नामक एक पुरोहित था। प्रभावती उसकी पुत्री थी। ध्यान से मरकर मेढक हुआ। पूर्व स्नेह के कारण वह श्रुतकीर्ति मुनि हो गये थे । प्रभावती की मां सर्प के काटने का आँचल पकड़ता है, जहाँ वह जाती उसके से मर गई थी। मोहवश श्रुतकीति अपने पद से च्यूत आगे आगे उछलता है। भयदत्ता पानी लेने नहीं जाती। हुए। प्रभावती ने उन्हें सत्पथ पर स्थिर रखने के लिए

Loading...

Page Navigation
1 ... 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149