Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 104
________________ २८, वर्ष ४०, कि०३ अनेकान्त काशस्थावगाहः । शरीरवाइमनः प्राणापानापुद्गलानां। विपरीत तत्व को समझाने के लिए 'अजीव कायाधर्माधर्मा. सुखजीवित मरणोपग्रहाश्च । बर्तनापरिणामक्रिया परत्वा- काशपुद्गला:' सूत्र रचा, तब उन्हें उक्त निर्दिष्ट अजीव परत्वे च कालस्य और परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।'- शब्द से विपरीत (उस जोड़ी का) शब्द देना भी जरूरी हो गति में सहायक होना धर्म द्रव्य का, स्थिति मे गया और इसीलिए उन्होने 'जीवाश्च' सूत्र की रचना की। सहायक होना अधर्म द्रव्य का, स्थान देना आकाश द्रव्य का, और प्रारम्भिक आचार्यों की दृष्टि भी यही रही-सब ही शरीर-वचन-मन-प्राणापान-सुख-दुःख-जीवन-मरण पुद्गल ने अशुद्ध को समझाने के लिए उसी के माध्यम से कथन द्रव्य का, वर्तना-परिणमन क्रिया-परत्व-अपरत्व जैसा बर्तन किया। यदि प्रथम सूत्र में वे 'अचेतन कायाः' जैसा सूत्र काल का और परस्पर में एक दूसरे का उपकार करना कहते तो 'जीवाश्च' की जगह 'चेतनाश्च' भी कह देते। जीव द्रव्य का स्वभाव कार्य है। आशय ऐसा कि उक्त पर चेतन कहते कैसे ? और किसको? जब कि उपदेश-पात्र द्रव्यों मे यदि निश्चित अपने-अपने कार्य-(उपकार) रूप की वर्तमान अवस्था अशुद्धमात्र हो और उस काल परिणमन नही होगे तो वे द्रव्य तन्नामद्रव्य नही कहलाएंगे। चेतनत्त्व पर उसकी पकड़ ही न हो। यत:-जब जीव की ऐसे में सोचना होगा कि सिद्ध भगवान अन्य सिद्ध भगवानो पकड़ जीवत्व (प्राणधारणत्त्व) मात्र तक सीमित हो तब के लिए या अन्य किसी के उपकार के लिए स्वयं क्या वह शुद्धचेतनत्त्व (स्वभावी दशा) को कहाँ, कैसे पकड़ करते-कराते हैंअथवा कैसे करते-कराते है? यदि ऐसे किसी सकता था और अशुद्ध चेतन को चेतन जैसे शुद्ध सवोधन से उपकार आदान-प्रदान की उनमे सभावना बनती हो तब संबोधित भी कैसे किया जा सकता था! तो वे जीव हैं-कृत्कृत्य और सिद्ध नहीं और यदि उक्त सूत्र में प्रादि शब्द :-अभी तो हम 'औपशमिकादि सभावना नही बनती हो तो वे सिद्ध है-जीव नही। भव्यत्वाना च' के भाव को ही नहीं पकड़ पा रहे है । जहा जीवाश्च का व्याल्यान-एक प्रश्न यह भी उभर कर आचार्य ने कर्मक्षय के बाद की आत्मअवस्था का वर्णन सामने आता है कि यदि जीव नाम आत्मा (चेतनगुण) की करते हुए बतलाया कि उस अवस्था मे औपशमिक आदि अशुद्ध अवस्था का है और जीवत्व नष्ट हो जाता है तो भाव भी नही रहते-वहा उनका भाव समस्त पाँचो भावो आचार्य ने 'जीवाश्च' सूत्र क्यों कहा है और जीव की गणना के अभाव होने से है और इसे सूत्र मे 'आदि' शब्द देकर द्रव्यो में क्यो की? क्या द्रव्य का भी कभी लोप होता है? उन्होने स्पष्ट भी कर दिया है। सूत्र में यह तो कहा नही प्रश्न बड़े मार्के का और तर्क सगत है। हा, द्रव्य का कि आदि शब्द मे पारिणामिक का ग्रहण छोड़ दिया गया कभी लोप नहीं होता। यह बात वीरसेन स्वामी के समक्ष है। 'आदि' शब्द मे तो सभी पांचो भावो का ग्रहण न्याय्य भी रही और इस बात को उमारवामी भी जानते रहे। ठहरता है। फलतः-हमारी दृष्टि से सूत्र मे 'भव्यत्वाना दोनो ने ही शुद्ध मूल-द्रव्य का लाप नहीं किया। उमास्वामी च' का ग्रहण (जैसा कि माना जा रहा दे-) पारिणामिक ने जीव के चेतनत्व को "सिद्धत्व' (शुद्ध चेतन) रूप मे भावो मे से भव्यत्व । नाश होता है और जीवत्व शेष स्वीकृत किया-(अन्यत्र केवल सम्यक्त्व ज्ञान-दर्शन- रहता है' यह बताने के लिए नही मालुम हाता अपितु वह सिद्धत्वेभ्यः) और वीरसेन स्वामी ने चेतन रूप में स्वीकृत इस शका के निवारण के लिए मालम होता है कि कोई यह किया-'चेदणगुणमवलम्व्यपरूविदमिदि ।'-दोनो मान्य- न समझ ले कि-पारिणामिक भाव हाने से भव्यत्व मोक्ष ताओ मे भेद नहीं है। मे रहता होगा। आचार्य का भाव ऐसा रहा है कि भव्यत्व ध्यान रहे कि तत्त्वार्थसूत्र और सभी शास्त्र मोक्षमार्ग भाव जीव का है शुद्ध आस्मा का नही और वह भाव भी के अभिलाषो अशुद्धात्माओ (जिन्हे हम जीव कहते है) जीवत्व की भाति छूट जाता है। क्यो कि-ये बात उमाको बोध देने की दृष्टि से ही रचे गए हैं और उन्ही के स्वामी महाराज के ज्ञान से भी अछूती नही थी कि सवोधन में हैं। आचार्य ने जब 'अवुधस्यवोधनार्थ ससारियो जीवत्वभाव की भांति भव्यत्व भी औदायक है। इस बात की वर्तमान अवस्था जीवपने को लक्ष्य कर उन्हें, उनके को वीरसेन स्वामी ने तो स्पष्ट रूप मे खोलकर सामने ही

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