Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 113
________________ प्रोम् महम् III. Eena ThanRITAutummymagma - -- - - - - - -- परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम ॥ वर्ष ४० वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ अक्टबर-दिसम्बर किरण ४ वीर-निर्वाण सवत् २५१३, वि० स० २०४४ । १९८७ शान्तिनाथ स्तोत्रम् त्रैलोक्याधिपतित्वसूचन परं लोकेश्वररद्भुतं, यस्योपयुहरीन्दुमण्डलनिभं छत्रत्रयं राजते । प्रश्रान्तोद्गतकेवलोज्जवलरुचा निर्भत्सितार्क प्रभं, सो ऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥१॥ देवः सर्वविदेष एष परमो नान्यस्त्रिलोकीपतिः, मन्त्यस्येव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमतः । एतद्धोषयतीव यस्य विबुधस्ताडितो दुन्दुभिः, सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥२॥ -पद्मनन्द्याचार्य अर्थ-जिन शान्तिनाथ भगवान के ऊपर इन्द्रों के द्वारा धारण किए गए चन्द्रमण्डल के समान तीन छत्र तीनों लोकों की प्रभता को मूचित करते हैं और जो स्वय निरन्तर उदित रहने वाले केवलज्ञान रूप निर्मल ज्योति के द्वारा सर्य की प्रभा को तिरस्कृत करके सुशोभित है। पाग कालिमा मे रहित वे श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें। जिनकी भेरी देवों द्वारा ताडित होकर मानो यही घोषणा करती है कि तीनों लोको के स्वामी और सर्वज्ञ श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र ही उत्कृष्ट देव है और दूसरा नही है तथा समस्त तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाले इन्हीं के वचन सज्जनो को अभीष्ट हैं, दूसरे किसी के भी वचन उन्हें अभीष्ट नहीं है। पापरूप कालिमा से रहित ऐसे श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें॥ १,२॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149