Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 115
________________ आधुनिक पांडित्व का परमोत्कर्ष वाणीभूषण तुलसीराम (बड़ोत), आदि धीमान् प्रमुख सह- प्राप्त की थी जो अंग्रेजी या प्राकृत भाषादि के कारण, योगी थे। इनके पूर्ववर्ती जन-जनेतर मनीषियों को दुर्लभ थी। योग्यतम सहाध्यायी ख्याति से परेस्व०प० कैलाशचन्द्र जी, ५० राजेन्द्रकुमार जी के स्व. पडितजी की इस साधना का प्रथम प्रसून व्यपान, शान्त तथा अनुशासित सहाध्यायी थे । इनकी वाणी मे रस था, ग्वभाव में मधुरता, व्यवहार में सरलता 'न्यायकुमुदचन्द्र' का प्रथम भाग था, जिसमें स्व. पं० महेन्द्रकुमार जी सहयोगी थे। तथा स्व. पं० नाथूराम तथा आगमानकुल शास्त्रकथन में निर्भीकता थी। फलत: शार्दूल पडित ने इनकी क्षमताओं को पुष्ट करने और 'प्रेमी' की प्रेरणा से यह कार्य ५० कैलाशचन्द्र जी ने हाथ समाज को उनसे लाभान्वित होने का विविध योग में लिया था। तथा माप किया था कि इसका सर्वांगजुटाया । और भारती. बौद्धिकवर्ग को; सात प्राचार्य, समग्र मपादन करेगे । इस सकल्प की पूर्ति के लिए प्रवास शुक्निशास्त्रानुकल मार्गदर्शक-सम्पादक तथा आधुनिक पाठमिलान, आदि शारीरि श्रमसाध्य कार्यों को स्व० शोधलीपरक राष्ट्रभाषा के मौलिक लेखक के रूप में प० महेन्द्र कुमार जी ने किय थे। फलत इनके उत्साह को स्व०५० कैलाशचन्द्र का, पूरी आधी शतीक, प्रदर्शन स्थायित्व देने के लिए पडित (के० च०) जी ने इन्हें ही विहीन तथा विनम्र नेतत्व प्राप्त रहा है। सम्पादक रूप में स्वीकार किया था। और अपने को केवल 'भूमिका-लेखक' ही रखकर तत्कालीन जैन-मनीधर्मशास्त्री -- षियो (स्व० पं० मुखलालजी सघवी, प्राचार्य जुगलकिशोर ___ स्त्र. प. कैलाशचन्द्र जी ने अपने गुरुओं में प्राच्य- मुख्तारादि) को चकित कर दिया था। तथा अपनी सूक्ष्मपद्धति (विषय का मागोपाग वाचन, प्राणा तथा अम्नाय परख और तटस्थ दृष्टिकोण का लोहा मनवा दिया था। या मुख मे पागयण) के अनगार सिद्धान्त ग्रन्थो का जिसके दर्शन उनकी मौलिक कृति 'जैन इतिहास की पूर्वअध्ययन किया था। उन्हें अपने पठित ग्रन्थ कठम्य थे। पीठिका' में होते है। ध्यावाद महाविद्यालय द्वारा १९२७ मे धर्माध्यापक रूप से उन्हे बुलाये जाने का यही कारण था। उसके अग्रज सहा- हाजिर में हुज्जत नहीं गैर की तलाश नहीं'ध्यायी प० जगन्मोहनलाल शास्त्री (कटनी) ने भी इनकी जब आर्यसमाज के प्रमुख शास्त्राथों विद्वान् ने ही जैन ग्रन्यापस्थिति की उत्कृष्टता को स्वीकार करके जैनसमाज तत्वज्ञान पर मुग्ध होकर 'स्वामी कर्मानन्द' रूप धारण के प्रथग तथा सर्वोपरि गुरुकुल (स्या० म०वि०) क कर लिया तो मामाजिक उत्थान की उपशम-श्रेणी के धर्माध्यापकत्व के लिए इन्हें हो उत्तम माना था। तथा ज्वलन्त निदर्शन, स्व. प. राजेन्द्रकुमार जी ने 'शास्त्रार्थघर सर्वथा सत्य भी निकला । क्योकि ये समय के पाबन्द सघ' के विधायक रूप को प्रधानता दी। और शार्दल स्वात्म-संतृष्ट तथा छात्रहितलं न अध्यापक थे। तथा अपने पंडित से प्रभावित जिनधर्मी-समाज ने अग्रज-जिनधर्मी सहाध्यायियों के समान अध्ययन या विद्यार्थित्व का त्याग संस्थाको (भा ० महासभा तथा परिषद्) से अधिक महत्व नही कर सके थे।' इन्होंने छात्रो के साथ श्वे० न्यायतीर्थ भा० दि० जैनसघ को दिया। तथा एक दशक में ही परीक्षादि ही नही उत्तीर्ण की थी अपितु प्रात्यशोध की इमका मुखपत्र, सरस्वती भवन, प्रकाशन, भवन तथा भिज्ञता के लिए अपने छात्रो से ही पढकर मेट्रिक (अग्रेजी) (जीवनदानी, स्वात्मसतुष्ट तथा समपित) दर्जनाधिक वक्ता परीक्षा भी पास की थी। तथा व्यु-पन्न छात्रो के सहयोग लेखक तथा सचालको ने संघ को जीवन्त संस्था बना से इतिहास-पुरातत्व एवं पाश्चात्यशोधकों द्वारा कृत, प्राच्य दिया था। बाइमय की उस समकालीन शोध की भी पूर्ण भिज्ञता

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