Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 105
________________ 'सिवानजीबा-बक्सा रख दिया। वे बलवान आचार्य थे और 'उत्तरोत्तर कमीयः' सभी अचार्य मान्य है। प्रस्तुतप्र संग तो वीरसेन स्वामी के की श्रेणी मे भी थे। वे कहते हैं मन्तव्य की पुष्टि मात्र का है-किसी के विरोध का नही। 'प्रघाईकम्मच उक्कोदय जणिदमसिद्धत्तं णाम । तं दुविह- म :-जब हम जीव में बतलाए गए पांचों तत्य जेसिमसिद्धत्तमणादि-अपज्जवसिदं ते अभन्वाणाम। मावो संबंधी सूत्र औपशमिक क्षायिको भावो मिश्रश्च जेसिमवरं ते भव्वजीवा। तदो भध्वत्तममव्यत्तं च विवाग जीवस्य स्व-तत्त्वमौदयिकपारिणामिको च' पर विचार करते पच्चइय चेव'-धवला पुस्तक १४१५४६१६ पृष्ठ १३ हैं तो हमे इसमे 'जीवस्य स्वत्तस्वम्' शब्द से स्पष्ट निश्चय चार अघातिकर्मों के उदय से उत्पन्न हुआ असिड- हो जाता है कि उक्त पांचों भाव जीव के ही स्व-तत्त्व भाव दो प्रकार का है.......''इनमे से जिनके असिद्धभाव हैं-चेतन के स्व-तत्त्व नही है और इसीलिए जीव अनादि अनन्त है वे अभव्यजीव हैं और जिनके दूसरे प्रकार अवस्था में इनका होना अवश्यमावी है, यदि ये भाव नहीं का है वे भव्यजीव हैं। इसलिए भव्यत्व और अभव्यत्व है तो वह जीव नही है। साथ ही यह भी है कि ये पांचों ये भी विपाक (कर्मोदय) प्रत्यापक ही हैं। भाव जीव में होते हैं और शुद्धावस्था मोक्ष मे इनमे से फिर. पारिणामिक भाव को स्वभाव-भाव माने जाने कोई भी भाव नही हैं-वहां कौके सय-क्षयोपशम आदि का जो चलन है, वह कर्मापेक्षी न होने के भावमात्र मे है* जैसी विवक्षा को भी स्थान नही है। स्मरण रहे कि और अशुद्ध चेतन (जीव) के ही भाव में है-चेतन के वस्तु के शुद्ध स्वरूप मे-जो कपन मे न आ सके और सदाकाल रहने वाले (ज्ञानादि की भांति) स्वभाव-भाव में केवल अनुभव का विषय हो, उसमे विवक्षा कोई स्थान नहीं है। यदि पारिणामिक भाव का भाव सदा काल भावी नही रखती. अस्त । चेतन का स्वभाव होता तो पारिणामिक होन से भव्यत्व फिर, यह भी विचारना होगा कि स्व और तत्त्व जैसे भी कभी नही छूटना चाहिए था जो कि छूट जाता है। दो शब्दों की सूत्र में क्या आवश्यकता थी, सूत्र में केवल भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि आचार्यों को सिद्धा- 'स्व' देने से ही निर्वाह हो सकता था। पर आचार्य ने वस्था मे जीवत्व इष्ट होता तो वे 'ओपमिकादि 'तत्त्वम' जोडकर यह स्पष्ट कर दिया है कि-'तस्य भव्यत्वानां च सूत्र के स्थान पर 'औपशमिकादयश्च जीवत्व भावस्तत्त्वम्'-य-पदार्थः यथा अवस्थितस्तस्य सर्थव वर्य' सूत्र जैसा कथन करके वहां जीवत्व के अस्तित्व की भवनम ।-जो जिस रूप मे स्थित है उसका उसी रूप में स्पष्ट घोषणा करते। पर उन्होंने ऐसा कुछ न कह कर होना तत्त्व है। उक्त स्थिति में जीव के पांचों भाव सत्र मे 'आदि' शब्द से सभी भावो के अस्तित्व का निषेष जीव के स्व-तत्व है और जीव मे ही होते हैं, शुद्ध ही किया है और जीव के पारिणामिकभाव भव्यत्व का भी चेतन मे नही । फलत:-यदि इन भावों से जीव का निषेध (भ्रमनिवरणार्थ ही-जैसा हम ऊपर लिख चुके है) छटना स्वीकार किया जाता है तो वह जीव ही नहीं किया है। ऐसी स्थिति मे यह विचारणीय आवश्यक हो ठहरता-जिसे हम चेतन कह रहे हैं उस शुद्ध रूप में आ गया है कि उक्त 'आदि' शब्द की परिधि से पारिणामिक जाता है। इसीलिए कहा है-'सिद्धा ण जीवा' चेयणभाव को वजित रखना क्यो और किस भाव में लिया जाने गुणमबलम्व्यपरुविदमिदि।' लगा? जबकि 'पादि' शब्द सदा ही अशेष के ग्रहण का हमें श्री वीसेनाचार्य वैसे ही प्रमाण हैं जैसे कुन्दकुन्द मचक रहा है? निवेदन है कि दि प्राचार्य उमास्वामी को प्रमति अन्य अचार्य। हम सभी को मान देकर तस्व-चिंतन उक्त भाव मान्य रहा तो उन्होंने सर्व सन्देहो को दूर करने कर रहे हैं-यदि किन्ही को चिंतन मात्र ही असह्य हो और निश्चित स्थिति को स्पष्ट करने वाला 'औपशमिकाद- और वे सम्यग्दृष्टि के लिए निर्धारित 'तत्त्व-कुतत्त्व पिछाने' यश्चत्वारः भध्यत्वं च' जैसा सूत्र ही क्यो नही बना दिया? का अनुसरण न करें-तो हम क्या करें, हम तो विचार के इस दृष्टि को भी ऊहापोह द्वारा समझा जाय । यतः-हमें लिए ही कह सकते हैं। (क्रमशः) * यद्यप्येतदशुद्धपारिणामिक त्रयं व्यवहारेण संसारि जीवेऽस्ति तथा सव्वे सुद्धा ह सुबणया इतिवचनाच्वनिश्चयेन मास्तित्रयं, मुक्तजीवे पुनः सर्वथैव नास्ति.टी. १३३३११

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