Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 83
________________ १०वी शताब्दी केनकायों में बीवदर्शन की समीक्षा महान नीतिकारक एवं दार्शनिक प्राचार्य सोमदेव ने वासना की अग्नि का बूम जाना है। जिसमें लोभ, क्रोध, यशस्तिलक चम्पू में समस्त भारतीय दर्शनों पर प्रकाश घृणा व प्रम रूपी अग्नि बुझकर कामासव, भावासक एवं डालते हुए उनकी समीक्षात्मक व्यख्या प्रस्तुत की है। बोद्ध अविद्यासव आदि मन की विशुद्ध प्रवृत्तियाँ समाप्त हो दर्शन के शून्यवाद के सम्बन्ध में वे कहते हैं-इस लोक में जाती है।" निर्वाण को 'सितिभाव' या शीतलता की निश्चय से न तो कोई अन्तरंग तत्व (आत्मा आदि पदार्थ) अवस्था कहा गया है। इसमें कमो का नहीं बल्कि रागहै, और न ही बाह्यतत्व (घट-पट आदि) है। क्योकि द्वेष रूपी मलो का क्षय हो जाता है। शरीर के रहने पर प्रस्तुत दोनों तत्व विचार रहित हैं। अत: शून्यता ही भी जिसमें तृष्णा का अभाव हो निर्वाण कहलाता है। कल्याण करने वाली है।" "वही मैं हू, वही (पूर्वदृष्ट) रजतसूत्त मे कहा गया है कि निर्वाण के बाद पुनर्जन्म नहीं पात्र है, वे ही दाताओ के गृह है" इस मान्यता के समर्थक होना । यह (निर्वाण) मानव-शरीर का दीपक के बुत बौद्धों को आत्मा की शू-यता को नहीं मानना महिए।" जाने के समान है। जिसमें जीव लोभ, क्रोध, भ्रम आदि सोमदेव सूरि आगे कहते है कि जब बौद्ध दर्शन समस्त विकागे से मुका परमानन्द या पूर्ण शान्ति की अवस्था समार में शून्य का विधान मानता है तो उसक तपश्चरण को प्राप्त होता है।" करने एवं मूर्ति को नमस्कार करने का क्या प्रयोजन ? सोमदेव सरि ने भी बौदों की इस मान्यता को स्पष्ट वास्तव में इससे उनकी मूर्खता ही प्रकट होती है । ५ करते हुए कहा है कि जिस प्रकार बुझता हुआ दीपक किसी भी दिशा को नही जाता, बल्क तेल के समाप्त होते "ससार में कुछ भी नित्य नहीं है, सब कुछ शून्य है, ही नष्ट (शांत) हो जाता, है, वैसे ही समस्त दुःखों का इसे मैं प्रमाण से सिद्ध कर सकता हूँ ऐसी प्रतिज्ञा यदि क्षय करके मोक्ष को प्राप्त हो केवल शान्ति का लाभ पाता आपके द्वारा (माध्यमिक बौद्ध) की जाती है तो आपका है। बौद्ध दर्शन आत्म शुन्यता आदि तत्वो की भावना से सर्वशून्यतावाद का सिद्धान्त स्व: ही समाप्त हो जाता ___ मुक्ति मानता है ।" अर्थात समम्त . गत क्षणिक, दुःरूरूप, है। क्योंकि प्रमाण तत्व के सिद्ध हो जाने पर शून्यवाद का स्वरक्षणात्मक एव शून्य रूप है, इस तरह से चार प्रकार विधान नही किया जा सकता।" चूकि 'मैं' शून्य तत्व को की भावना से मुक्ति होती है।" सिद्ध करता है, इसलिए 'मैं' की सत्ता स्वयसिद्ध है। अत: बौद्धों की उक्त मान्यता का खण्डन करते हुए कवि बौद्धो का शू यवाद उनके द्वारा ही खण्डित हो जाता है। कहता है कि-भावना मात्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो निर्वाण मोक्ष :-भगवान बुद्ध ने अपनी शिक्षा चार सकती। क्योंकि भावना से सभी शुभ-शुभ वस्तु चित्त में पार्यसत्यों में समाहित करते हुए ससार को दुःखमय कहा स्पष्ट रूप से झलकने लगती है। अर्थात वस्तु का मात्र है। दु.ख, दु.ख का कारण, दु ख-निरोध, एव दु ख निरोध के चिन्तन होता है। प्राप्ति नही। यदि भावना मात्र से मुक्ति उपाय। इन चार आर्यसत्यों को मानव, जीवन में मूर्त रूप की प्राप्ति माना जाये तो बचको अथवा वियोगिर्यो की भी देकर जन्म-मरण के भवचक्र से छुटकारा पा सकता है। मुक्ति होनी चाहिए।" तृतीय आर्यसत्य (दुःख-निरोध) के अन्तर्गत बुद्ध ने निव्वाण बौद्ध दर्शन मे वस्तु को प्रतिक्षण विनाशशील माना (निर्वाण) का उल्लेख किया है । गया है। इस सिद्धात को मानने से बन्ध व मोक्ष का निर्वाण शब्द भगवतगीता एव उपनिषदो में भी मिलता अभाव हो जायेगा। क्योंकि यदि वस्तु को सर्वथा क्षणिक है। जहां पर उसका अर्थ, 'आत्मसाक्षात्कार' अर्थात, 'ब्रह्म ही माना जाये, तो प्रत्येक वस्तु अगले क्षण में समूल नष्ट से मिलन' लिया गया है। जबकि बौद्ध दर्शन में इसका हो जायेगी एसी अवस्था में जो आत्मा बंधा है (कर्म से शाब्दिक अर्थ है, "बुझा हुआ।" कुछ लोग उसे जीव का बद्ध है), वह दूसरे क्षण नष्ट हो जायेगा, तब मुक्ति किसे अन्त समझते हैं, जो उचित नही है। बौट ग्रन्थों मे जमने होगी। इसलिए राग-द्वेष रूप आम्यन्तर मल के जय हो और बुमने का जिक्र बहुत आया है। अत: निर्वाण का अर्थ जाने से जीव के आत्म स्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष कहते है

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