Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 86
________________ १०, बर्ष ४०, कि०३ अनेकान्त वैदिक या अन्य परम्पराओं में भी उल्लिखित हैं। पुष्पदन्त राज्य व्यवस्था का सूत्रपात तीर्थंकर ऋषमदेव ने ही कृत महापुराण और जैन परम्परा के अनुसार ऋषभदेव किया उन्होंने विभिन्न जनपदों, खेट-खर्बट तथा ग्रामों की इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर थे। वे अन्तिम स्थापना की और साम-दाम-दण्ड-भेद आदि की कलकर नाभिराय और मरुदेवी के पुत्र थे। गर्भ में आने से व्यवस्था की। ६ माह पूर्व ही नाभिराय के आंगन में रत्नों की वृष्टि वर्ण व्यवस्था की सर्वप्रथम स्थापना भी तीर्थङ्कर हई। मरुदेवो ने १६ स्वप्न देखे। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया ऋषभदेव ने की उन्होंने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वे गर्भ मे अवतरित हुए। वर्ण बनाये यद्यपि मनुष्य जाति एक है, अत: ऊँच-नीच का चैत्र कृष्ण नवमी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में मरुदेवी ने प्रश्न नही। मात्र वृत्ति और आजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिए ही उन्होंने यह वर्ण भेद किया। वैदिक एक ओजस्वी पुत्र को जन्म दिया।" विभिन्न देवपुत्रों के साथ क्रीडाएं करते हुए उनका बचपन बीता । युवा होने सस्कृति जहाँ यह विभाजन जन्म से स्वीकारती है वहाँ पर यशस्वी और सुनन्दा के साथ उनका विवाह हुआ।" जैन संस्कृति कर्म से । कहा गया है 'कम्मुणा बंभणों होई कम्मुणा होई खत्तियो । ऋषभदेव का सम्भवत: पहला चरित्र है जिसने वइसो कम्मुणा होई सुद्दो हवई कम्मुणा।" वैवाहिक जीवन का आरम्भ किया। इससे पूर्व भोग भूमि महापुराण की छठी और सातवी सन्धियों में ऋषभदेव में युगल सन्तान होती थी और वही युवा होने पर पति- की प्रव्रज्या का सुन्दर वर्णन है। सर्वविदित है कि ऋषभदेव की प्रव्रज्या पत्नी हो जाते थे। नाभिराय ने उनका बड़ी धूमधाम से । ने दीर्घकाल तक राज्य का सुन्दर सचान किया और पट्टबन्ध किया और ऋषभदेव राजकाज चलाने लगे।" नीलांजना का विनाश देखकर प्रवज्या ग्रहण की थी। यह उनकी महारानी यशस्वती से भरत, ६६ अन्य पुत्र तथा प्रतीक इस बात का है कि मनष्य को राज्य और सत्ता से ब्राझी नाम की पुत्री और सुनन्दा से बाहुबलि पुत्र तथा सदा चिपके नही रहना चाहिए, जीवन को क्षणिक मानते सुन्दरी नाम की पुत्री इस प्रकार १०३ सन्तानें हुई।" हुए आत्मचिन्तन में भी रत होना चाहिए। ऋषभदेव जी का जीवन लोक कल्याण के लिए था ऋषभदेव ने शरीर से ममत्व छोड़कर कठोर तपश्चरण उनसे पहले कल्प वृक्षों से सभी की आवश्यकताएं पूरी किया। आहारार्थ निकलने पर कही आहार नहीं मिला, होती रहती थीं अतः आजीविकार्थ भ्रमण का प्रश्न ही नहीं लोग उपहार में बहुमूल्य वस्तुएं लाते पर सन्यासी को इनसे था, पर उनके काल में कल्पवक्षो की शक्ति क्षीण होने क्या मोह ? यह उनकी इस वृत्ति का परिचायक है कि लगी, अत: उन्होंने असिमसि, कृषि, वाणिः आदि का कठिन से कठिन आपद आने पर भी धर्म और धेर्य न उपदेश सर्वप्रथम दिया। उन्होंने पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी छोड़ो। अन्त में हस्तिनापूर के सोमप्रभ के लघु भ्राता को वर्णमाला और अंकों का उपदेश दिया । ब्राह्मी गोद में श्रेयांस ने उन्हें इक्षु रस का आहार दिया। तभी से यह दाहिनी ओर बैठी थी, और सुन्दरी बायीं ओर। इसी दिन इक्षु तृतीया (अक्षय तृतीया) के नाम से प्रचलित कारण वर्णमाला दायी ओर अंक बायी ओर को लिखे जाते हुमा । उन्हें फाल्गुन कृष्ण एकादशी को केवल ज्ञान की हैं। पूत्र को भी यथायोग्य शास्त्रो का ज्ञान उन्होंने प्राप्ति हुई। कराया। इस प्रकार उन्होंने सन्तानों को सुशिक्षित बनाकर इन्द्र ज्ञा से कुबेर ने समशरण का निर्माण किया, ६.०ने कर्म से यह उपदेश दिया कि माता-पिता का कर्तव्य जिसमें देव, मनुष्य, पशुओं आदि के बैठने के लिए अलगवे वल जन्म दे देना ही नहीं है किन्तु उन्हें सुशिक्षित बनाना अलग स्थान था। तीर्थकर की दिव्यध्वनि को सभी जीव ी है, तथा पुत्रों से भी पहले पुत्रियों को सुशिक्षित करना अपनी-अपनी भाषा मे सुनते थे। किसी समय पह विवाद आवश्यक है। का विषय था किन्तु विज्ञान ने आज ऐसे यन्त्रों का निर्माण

Loading...

Page Navigation
1 ... 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149