Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 66
________________ २६ वर्ष४०, कि०२ बनेकान्त सदान्तिक विषयों में अगाष पाण्डित्य अजित कर लिया तथा विद्या की उत्कृष्ट स्थली करहाटक में आया है। बाद था। क्योंकि देशाटन करते हुए वे प्रायः वहीं पहुंच जाते का अभिलाषी मैं सिंह विचरण की भांति विचरण करता थे जहां उन्हें किसी महावादी या किसी वादशाला के होने हूँ। का पता चलता था। वहां पहुंचकर वे अपने वाद का आयुर्वेदज्ञताडंका बजाकर स्वतः ही वाद के लिए विद्वानों का प्राह्वान उपयुक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि श्री समन्तभद्र करते थे। यह तथ्य निम्न पद्य से उद्घटित होता है जो स्वामी जैन सिद्धान्त, धर्म, दर्शन और न्याय शास्त्र के उन्होंने किसी राजा के सम्मुख आत्म परिचय देते हुए अगाध पाण्डित्य से परिपूर्ण महान् तार्किक एव उद्भट प्रस्तुत किया था विद्वान् थे। उनके ज्ञान रवि ने चारों ओर ऐसा प्रकाश कांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्बाम्बुशे पाण्डुपिण्डः पुंज फैला रखा था जिसमें जैनधर्म का माहात्म्य निरन्तर पुण्डोडु शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिवाट । उद्भासित था। इस सन्दर्भ में यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है वाराणस्यामभूबं शशधरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी कि इसके साथ ही वे आयुर्वेद शास्त्र में निष्णात् कुशल राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जननिर्ग्रन्थवःदी॥ वैद्य भी थे। क्योंकि एक पद्य में जहां उन्होंने अपने यह आत्मपरिचयात्मक पद्य उनके द्वारा किसी राज- आचार्य, कविवर वादिराट, पण्डित (गमक), देवज्ञ सभा में अपना परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा गया है (ज्योतिर्विद), मान्त्रिक (मंत्र विशेषज्ञ) तांत्रिक (तन्त्र जिसमें स्वयं को कांची का 'नग्नाटक' बतलाते हुए 'जैन विशेषज्ञ), आज्ञासिद्ध, सिद्ध सारस्वत आदि विशेषण निग्रंथबादी' निरूपित किया है। संभव है कुछ बतलाए हैं वहां आयुर्वेद शास्त्र में पारंगत कुशल वैद्य होने परिस्थितियों किसी स्थान पर उन्हें कोई अवेष के कारण उन्होंने स्वयं के लिए "भिषग' विशेषण भी धारण करना पड़ा हो, किन्तु वह सब अस्थायी था। उल्लिखित किया है जो उनकी आयुर्वेदज्ञता की दृष्टि से प्रस्तुत पद्य में वाद के लिए विद्वानों को ललकारा गया है महत्वपूर्ण है । यथाऔर कहा गया है कि हे राजन् ! मैं तो वस्तुतः जैन आचार्योऽह कविरहमह वादिराट् पण्डितोऽहं निर्ग्रन्थबादी हैं, जिस किसी में वाद करने की शक्ति हो देवज्ञोऽहं भिषगहमह मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । वह मेरे सामने आकर मुझसे वाद करे । राजन्नस्यां जलधिबलयामेखलायामिलाया____ एक बार प्राप विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ॥ 'करहाटक' नगर में पहुंचे थे जो उस समय विद्या का इस श्लोक मे आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अपने जो उत्कट स्थान था और अनेक भटों से युक्त था। वहां के विशेषण बतलाए हैं उनसे उनके असाधारण व्यक्तित्व, राजा के सम्मुख आपने अपना जो परिचय प्रस्तुत किया बहुशास्त्रज्ञता एव प्रकाण्ड पाण्डित्य का आभास सहज ही था वह श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. ५४ में निम्न मिल जाता है। इसमें अन्त के दो विशेषण विशेष महत्वपूर्ण प्रकार से उत्कीर्ण है है जो उनकी विलक्षणता के द्योतक हैं। वे राजा को पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता सम्बोधित करते हुए कहते हैं - हे राजन् समुद्र वलय वाली पश्चन्मालव-सिंधु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे । इस पृथ्वी पर मैं 'आशासिद्ध' अर्थात् जो आज्ञा देता हूं प्राप्तोऽहं करहाटकं बहभटं विद्योत्कटं संकटं वह अवश्य पूरा होता है। और अधिक क्या कहूं? मैं बादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।। 'सिद्ध सारस्वत' हूं अर्थात् सरस्वती मुझे सिद्ध है। इन्हीं अर्थात् हे राजन् ! पहले मेरे द्वारा पाटलिपुत्र नगर इन्हीं विशेषणों के साथ उन्होने स्वयं को राजा के सम्मुख के मध्य और तत्पश्चात् मालव (मालवा), सिंधु देश, ठक्क भिषग्' भी निरूपित किया है। सामान्यत: भिषग् वही (पंजाब) देश, कांचीपुर (कांजीवरम्) और वैदिश (विदिशा) होता है जिसने आयुर्वेद शास्त्र का अध्ययन कर उसमें देश में भेरी बजाई गई थी। अब मैं अनेक भटो से युक्त निपुणता प्राप्त की हो। असाधारण व्यक्तित्व के धनी

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