Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 65
________________ समन्तभद्र स्वामी का आयुर्वेद ग्रंथ कर्तृत्व - श्री राजकुमार जैन आयुर्वेदाचार्य जैन वाङमय के रचयिताओ तथा जन सस्कृति के प्रतिपादित मूलाचार के अन्तर्गत श्रमणचर्या के परिपालन प्रभावक आचार्यों में श्री ममन्तभद्र स्वामी का नाम अत्यन्त में ही निरन्तर तत्पर रहते थे। मुनिचर्या का निर्दोष पालन श्रद्धा एव आदर के साथ लिया जाता है। आप एक ऐसे करना उनके जीवन की प्रमुख विशेषता थी । वे असाधारण सर्वनामुखी प्रतिभाशाली आचार्य रहे हैं जिन्होंने वीरशासन प्रतिभा के धनी, अध्यात्म विद्या के पारगत और जिन धर्म के रहस्य को हृदयगम कर दिग-दिगन्त में उसे व्याप्त घारक निग्रंथवादी महान व्यक्तित्व के धनी थे। उनके किया । आपके वैदुष्य का एक वैशिष्ट्य यह था कि आपने जीवन क्रम, जीवन की असाधारण अन्यान्य घटनाओं तथा समस्त दर्शन शास्त्रो का गहन अध्ययन किया था और उनके द्वारा रचित ग्रयों को देखने से ज्ञात होता है कि उनके गूढतम रहस्यो का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था। उनके द्वारा जैनधर्म का प्रभत प्रचार एवं अपूर्व प्रभावना अपने धर्मशास्त्र के मर्म को हृदयगम कर उसके आचरण हुई । इसका एक मुख्य कारण यह है कि आप श्रद्धा, भक्ति व्यबहार मे विशेष रूप से तत्परता प्रकट की आपकी और गुणज्ञता के साथ एक बहुत बड़े अद्भक्त और अहंद पूजनीयता एव महनीयता के कारण ही परवर्ती अनेक गुण प्रतिपादक थे जिमको पुष्टि आपके द्वारा रचित स्वयम्भू आचार्यों एवं मनीषियो ने अत्यन्त श्रद्धा एव बहुमान पूर्वक स्तोत्र, देवागम, युक्त्यनुशासन और स्टूतिविद्या (जिनशतक) आपको स्मरण किया है। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने नामक स्तति ग्रंयो से होती है। इन ग्रन्थों से आपकी युक्तानुशासन टीका के अन्त मे प्रापको 'परीक्षेक्षण'- अद्वितीय अर्हद्भक्ति प्रकट होतो है। परीक्षा नेत्र से सबको देखने वाले लिखा है। इसी प्रकार स्वामी समन्तभद्र एक क्षत्रियवशोद्भव राजपुत्र थे । अष्ट महस्री मे आपके वचन महात्म्य का गौरव ख्यापित उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत 'उरगपुर' के राजा थे। करते हए आपको बहुमान दिया गया है। श्री अकलक देव जैसा कि उनकी 'आप्तमीमासा' नामक कृति की एक ने अपने ग्रथ 'अष्टशती' मे आपको' भव्यकलोकनयन' कहते प्राचीन प्रति उल्लिखित पुष्पिका-वाक्य से ज्ञात होता है हुए आपकी महनीयता प्रकट की है। आचार्य जिनसेन ने जो श्रवणबेलगोल के श्री दौर्बलिजिनदास शास्त्री के शास्त्र आदिपुराण मे कवियो, गमको, वादियों और वाग्मियों में भण्डार में सुरक्षित हैममन्तभद्र का यश चुडामणि की भांति सर्वोपरि निरूपित "इति फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः किया है। इसी भांति जिन मेन सूरि ने हरिवंश पुराण में, स्वामिसमन्तभद्रमुनेः कृतो आप्तमीमांसायाम् ।" वादिगज सूरि ने न्याय विनिश्चय-विवरण तथा पार्श्वनाथ एक अोर आप जहाँ क्षत्रियोचित तेज से देदीप्यमान चरित मे, वीरनन्द ने चन्द्रप्रभ चरित्र में, हस्तिमल्ल ने अपूर्व व्यक्तित्वशाली पुरुष थे वहां आत्महित चिन्तन में विक्रान्त कौरव नाटक मे तथा अन्य अनेक ग्रंथकारो ने भी तत्पर रहते हुए लोकहित की उत्कृष्ट भावना से परिपूरित अपने-अपने ग्रंथ के प्रारम्भ मे इनका बहत ही आदरपूर्वक थे। यही कारण है कि राज्य-वैभव के आधारभूत भौतिक स्मरण किया है। इसमे समन्तभद्र स्वामी का वैदष्य. ज्ञान सुख और गृहस्थ जीवन के भोग विलास के मोह में न गरिमा, पूजनीयता और परवर्ती आचार्यों पर प्रभाव भली फसकर आपने त्यागमय जीवन को अंगीकार किया और भांति ज्ञात होता है। साधुवेश धारण कर देशाटन करते हुए सम्पूर्ण देश में जैनाचार्गे की परम्परा में स्वामी समन्तभद्र की ख्याति जैनधर्म की दुन्दुभिबजाई। लगता है कि आपने अत्यन्त एक ताकिक विद्वान के रूप में थी और वे आचारोग में अल्प समय में ही जैन धर्म-दर्शन-न्याय और समस्त

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