Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 70
________________ ३० वर्ष ४० कि० २ लोकपयोगी प्रेयस्करी कार्य किया है वह अद्वितीय और बेमिसाल है। अनेकान्त उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार श्री समन्तभद्राचार्य का पोठ गेरसप्पा (कर्नाटक) मे विद्यमान था। श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री के अनुसार जिस अरण्य प्रदेश में स्वामी समन्तभद्र निवास करते थे वहाँ अभी तक विशाल शिलामय चतुर्मुख मन्दिर, ज्वालामालिनी मन्दिर और पार्श्वनाथ जिन चैत्यालय विद्यमान है जो दर्शनीय तो हैं ही पुरातत्वीय और ऐतिहासिक दृष्टि से आज उनका विशेष महत्व है। जगल मे यत्र तत्र अनेक मूर्तियां बिखरी पड़ी है जिससे उस स्थान का धार्मिक महत्व परिशात होता है । इस क्षेत्र में व्याप्त परंपरागत किवदन्ती से ज्ञात होता है कि इस जंगल में एक सिद्धरसकूप है। कलियुग में जब धर्म संकट उत्पन्न होगा उस समय इसरसकूप का उपयोग करने का निर्देश दिया गया है। इस रसकूप को सर्वाजन नामक अंजन नेत्र मे लगाकर देखा जा सकता है। सर्वोजन के निर्माण एवं प्रयोग विधि का उल्लेख 'पुष्पायुर्वेद' में वर्णित है। साथ में यह भी उल्लिखित है कि 'सजन' के निर्माण में प्रयोग किए जाने वाले पुष्प उसी प्रदेश मे मिलते है इसलिए उस प्रदेश की भूमि को 'रत्नगर्भा वसुन्धरा' १. कल्याणकारक, सम्पादकीय, पृष्ठ २६ ११. सम्म ६० १1३-८ । १२ . वही । १४. ( शेषांश पृ० २४ ) १३. वही १०।२९ ३० । साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन (डा० राजाराम जैन) १७७४ । १५. सम्म० प्रशस्ति १६. सम्म० १।३।११-१२ । १७. दे० रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ० १३०-१४२ । १८. Romance of the Fort of Gwalior (1931). Pages 19-20. के नाम से उल्लिखित किया गया है।' उपर्युक्त विवरण से यह तथ्य भी उद्घाटित होता है कि स्वामी समन्तमद्र का निवास जिस क्षेत्र या अरण्य प्रदेश में था उस क्षेत्र में कतिपय विशिष्ट प्रकार की पुष्प जातियां उपलब्ध रही होंगी जो सम्भवतः अब न हों । श्री सन्तभद्र स्वामी को उस क्षेत्र की समस्त प्रकार की वनस्पतियों एवं पुष्पों का सर्वांगीण परिज्ञान था और वे उनके औषधीय गुण धर्मो त उपयोग से हस्तामलकवत् परिचित थे । उनका अगाध ज्ञान ही उनकी वृत्तियों एवं ग्रंथों में अवतरित हुआ है जो लोकोपयोगी होने के साथसाथ धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व का भी है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र स्वामी द्वारा आयुर्वेद के ग्रंथों की भी रचना की गई थी जिनमें आयुर्वेदीय ज्ञान और चिकित्सा विधि के अतिरिक्त अन्य अनेक मौलिक विशेषताएं विद्यमान थी। इस दिशा मे पर्याप्त प्रयास एवं अनुसंधान अपेक्षित है । आशा है समाज के मनीषी विद्वज्जन एवं शोध संस्थाएं इस दिशा में अपेक्षित ध्यान देंगी। भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् १६ / ६, स्वामी रामतीर्थ नगर नई दिल्ली-१५ १६. सम्मइ० १०।२६ । २०. दे० र साहित्य का आलोचनात्यक परिशीलन १० १५-१०४। २१. सम्मइ० १।१०।२३-२४ । २२-२४. भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से इनके प्रत्यों क प्रकाशन हो चुका है । २५. विशेष के लिए दे० रहधू साहित्य का आलोचनात्मकपरिशीलन- ० ११-१५ । २६. सम्म६० ११६ धत्ता । २७. सम्म० की सन्धिके अन्त में लिखित पुष्पिकाएँ देखें। २८. सम्मइ० ११४ । १५ । ३०. वही - १० ३३०६-१० । ३२. बही - १०१३३।४-५ । ३४. वही - १०१३३।११ । ३६. वही - १२१ । २६. वही- १००३२०१-५ । ३९. वही-१०१३३।१-१० । ३२. बही - १२७११६-२० । ३५. वही - ११६१६ । ३७. सम्मइ० - १।६।४ । ३८. सम्मइ० - १।६।५ । ३६. सम्मइ० - ११६।६ | ४०. रघू साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन पृ०८१९ ।

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