Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 63
________________ प्रद्यावधि अप्रकाशित दुर्लभ प्रन्य-सम्मइजिणचरिउ प्रन्थ की विशेषताएँ ठीक, स्वस्थ, देखण (१०१५९) देखना, सत्तू (१०१५।१४) सम्मइजिणचरिउ का कथानक परम्परानुमोदित है, सत्तू, फाडिउ (१०।१७।२०) फाउना, किवाड इसमें सन्देह नही, किन्तु कवि ने उस में कुछ ऐतिहासिक (१०।१६।१) किवाड, गया (१०-२००५) = गया, एक्क तथ्य जोडकर उसे महत्वपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है। बार । १०।२१।९) = एक बार, ८।३।३ (१०।३३।१६) = गौतमचरित एवं भद्रबाहुचरित तथा चाणक्य-चन्द्रगुप्त, चोथा, घर (१०२८) = घर, हट्ट (१.५.१) हटना, डर नन्द-शकटाल आदि के वर्णन इमी कोटि मे आते हैं। (१।४।३) डरना आदि। महावीर-निर्माण के बाद ६८३ वर्षों की आचार्य-काल- उक्त शब्द-प्रयोगो का मूल कारण यह है कि रइघुगणना जैन इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्व रखनी है। काल अपभ्र श एवं हिन्दी का सन्धिकाल था। अवधी, कवि के अनुसार वीर निर्वाण (ई० पू० ५२७) के बाद वज, राजस्थानी, मालवी एव हरियाणिवी मे साहित्य ६२ वर्षों में गौतम सुधर्मा एव जम्बू स्वामी ये तीन के वन- लिखा जाने लगा था। चन्दवरदाई के पृथिवीराज रासो ज्ञानी हए । उनके बाद अगले १०० वर्षों मे ५ श्रुति केवली का पठन-पाठन भी प्रचुर मात्रा में होने लगा था। अपभ्रंश हए, जो १४ पूर्वो के ज्ञाता थे। उसके बाद अगले १८३ के रूपों में पर्याप्त विकास होने लगा था। अत: रइघु के वर्षों में १० पूर्वो के धारी हुए। तत्पश्चात् अगले २२० साहित्य भी उमका प्रभाव स्वाभाविक था। डा०हीरालाल वर्षों में ११ श्रुनांगों के धारी हुए और उनके बाद ११६ जैन, डा० ए० एन० उपाध्ये एव प० हजारीप्रसाद द्विवेदी वर्षों में ४ मुनि १ अग के धारी हुए। इस प्रकार ने रइधू-साहित्य मे सन्धिकालीन उक्त प्रवृत्तियों को देखकर (६२+१००+१३+२२०+११८) ६५३ वर्षों तक ही उसे Neo-Indo-Aryan Lauguages के भाषाश्रतज्ञान की परम्परा चलती रही और उसके बाद वह वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि में विशेष महत्वपर्ण बताकर उसके तत्काल प्रकाशन पर जोर दिया था।" लुप्त होती गई।" पौराणिक तथ्य ___सम्म इजिणचरिउ की प्रशस्ति का अध्ययन करने से जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, सम्मइजिणचरिउ विदित होता है कि उसका लेखक साहित्यकार तो है ही एक पौराणिक काव्य है उसमे विविध स्थलों पर अनेक किन्तु समकालीन भूगोल एव इतिहाम का भी जानकार है। वह लिखता है कि हिसार नगर योगिनीपुर (अर्थात् पौराणिक तथ्य उपलब्ध है। ऐसे राथ्यो मे महावीर के दर्तमान दिल्ली की पश्चिम दिशा में स्थित है।" वह नगर समवशरण में उनके प्रभाव से सर्वदा वसन्त ऋतु का हिसार-पिरोजा के नाम से भी प्रसिद्ध है।५ क्योंकि उसे रहना, शीतल मन्द सुगन्ध समीर का बहना चतुनिकाय पेरोसाहि अर्थात् फीरोजशाह ने बमाया था। वर्तमान देवो द्वारा अतिशयो को प्रकट करना आदि बातों का इतिहास से भी इस तथ्य का समर्थन होता है। कवि ने सम्बन्ध पुराण के साथ है। कवि रइधू ने उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत किया है :इस नगर को चित्रांग नदी के किनारे पर स्थित बताया सो विउलइ रितु सपत्तउ-समवसरण भूइहि सजुत्तउ। है।" बहुत सम्भव है कि चिनाव नदी का यह तत्कालीन तह आयमि अयालि वणराई-जायस अकुर फल-दल राई। नाम हो और उस समय वह हिसार के समीप ही बहती सुक्क-तलाय-कूब जलपुण्णा-कइल कलरव लवाइ पसण्णा । पिउ-पिउ बम्वीहा उल्नाव इ-ण जिणजत भव्य बोल्लवाइ। भाषा की दृष्टि से भी “सम्मइजिण वरि" विशेष बहइ सुयधु पवणु सुक्खापरु-मदु मदु दाहिण मलयायरु । महत्वपूर्ण रचना है। रइघ ने यद्यपि व्याकरण-सम्मत हय उ अवालि वसतु णरेमर-अणु विहुउ अच्छरिउ सुसकर । अपभ्रश के प्रयोग किए हैं किन्तु समकालीन स्थानीय हरिह सयासि गइदु वइट्ठ-अहिसिहिड कलितउ दिउ । अथवा लोकप्रचलित जनभाषा के अनेक प्रयोग सहज रूप मज्जारहु तलु साणु लिहत उ-हरिणहु वग्गु जिणेहु चहतउ । मे ही उपलब्ध हो जाते हैं। यथा-डाल (१।२।६)= एवमाइ आजम्म विरुद्धा-सयलजीव जाया जेहता। वृक्षशाखा, चडाव (१।८।१५):-चढ़ाना, चंग (३।२८।८) सम्मइ० १।१६।१-६

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