Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 47
________________ शुभोपयोग का स्वरूप * श्री नरेन्द्रकुमार जैन, बिजनौर जो आत्मा देव, शास्त्र, गुरु की पूजा में, दान में, गुण- कारण है। अत: शुभोपयोग के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले व्रत, महाव्रत रूप उत्तम शीलो में और उपवास आदि शुभ विषय सुख हेय है-छोड़ने योग्य है। जो सुख पांच कार्यों में लीन रहता है, वह शुभोपयोगी कहलाया है । जो इन्द्रियो से प्राप्त होता है, वह पराधीन है, बाधा सहित आत्मा शुभोपयोग से सहित है वह तियंच, मनुष्य अथवा देव है। बीच मे नष्ट हो जाने वाला है, बन्७ का कारण है होकर उतने काल तक इन्द्रिय जन्य विविध सुखों को पाता और विषम है,-हानि वृद्धि रूप है, इसलिए दुःख ही है। अन्य की बात जाने दो, देवों के भी स्वभाव जन्य सुख है। शुभोपयोग से पुण्य होता है और पुण्य से इन्द्रियजन्य नहीं हैं, ऐसा विजेन्द्र भगवान के उपदेश मे युक्तियों से सुख मिलता है परन्तु यथार्थ में विचार करने पर वह सिद्ध है, वास्तव मे शरीर की वेदना से उत्पीड़ित हाकर इन्द्रियजन्य सुख-दुःख रूप ही मालूम होता है । पुण्य और रमणीय विषयों मे रमण करते हैं। जबकि मनुष्य, नारकी, पप मे (बन्धन की अपेक्षा) विशेषता नहीं है, ऐसा जो तिथंच और देव चारो ही गतियों के जीव शरीर से उत्पन्न नही मानता है, वह मोह से आच्छादित होता हुआ भयाहोने वाला दुःख भोगते है । तब जीवो का वह उपयोग नक और अन्तरहित ससार मे भटकता है। शुभ अथवा अशुभ कैसे हो सकता है ? इन्द्रिय जन्य दुःखों प्रवचनसार मे अन्यत्र कहा गया है कि जो जीव का कारण होने से शुभोपयोग और अशुभोग्योग समान जिनेन्द्रो को जानता है, सिद्धो तथा अनगारों (आचार्य, ही हैं, निश्चय से इनम कुछ अन्तर नहीं है । इन्द्र तथा उपाध्याय, और सर्व साधुओ) की श्रद्धा करता है, जीवों चक्रवर्ती सुखियों के समान लीन हए शुभोपयोगात्मक के प्रति अनुकम्पायुक्त है उसके वह शुभ उपयोग है। यदि भोगो से शरीर आदि की ही वृद्धि करते है। शुभोपयोग मुनि अवस्था मे अरहन्त आदि में भक्ति तथा परमागम का उत्तम फल दोनो मे इन्द्र को और मनुष्यों मे चक्रवर्ती से युक्त महामुनियों में वत्स नता-गोवत्स की तरह स्नेहको ही प्राप्त होता है परन्तु उस फल से वे अपने शरीर वृत्ति है तो वह शुभोपयोग से युक्त चर्या है। सराग-चरित्र को ही पृष्ट करते है न कि आत्मा को भी। वे वास्तव मे की दशा में अपने से पूज्य मुनिराजों की वन्दना करना, दुखी रहते है, परन्तु बाह्य मे सुखियों के समान मालूम नमस्कार करना, आते हुए देख उठकर खड़ा होना, जाते होते हैं । यह ठीक है कि शुभोपयोग रूप परिणामो से समय पीछे-पीछे चलना इत्यादि प्रवृत्ति तथा उनके श्रम, उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के पुण्य विद्यमान रहते है, थकावट को दूर करना निन्दित नहीं है, प्रशस्त है। परन्तु वे देवो तक समस्त जीवो को विषयतृष्णा ही शुभोपयोगी मुनि की प्रवृत्तियां--दर्शन और ज्ञान उत्पन्न करते है । शुभोपयोग के फलस्वरूप अनेक भोगोप- का उपदेश देना, शिष्यों का संग्रह करना, उनका पोषण भोगों की सामग्री उपलब्ध होती है, उससे समस्त जीवों की करना तथा जिनेन्द्र देव की पूजा का उपदेश देना यह सब विषयतृष्णा ही बढती है, इसलिए शुभोपयोग का अच्छा सरागी मुनियो की प्रवृत्ति है । जो ऋषि, मुनि यति, मनकैसे कहा जा सकता है ? फिर जिन्हें तृष्णा उत्पन्न हुई गार के भेद से चतुर्विध मुनि समूह का षटकायिक जीवों है, ऐसे समस्त ससारी जीव तृष्णाओ से दुखी और दुखों की विराधना से रहित उपकार करता है-वैयावृत्य के से संतप्त होते हुए विषयजन्य सुखों की इच्छा करते हैं द्वारा उन्हें सुख पहुंचाता है वह भी सराग प्रधान अर्थात और मरण पर्यंत उन्हीं का अनुभव करते रहते हैं । विषय शुभोपयोगी है । यद्यपि अल्प कर्मबन्धन होता है, तथापि जन्य सुखों से तृष्णा बढ़ती है, और तृष्णा ही दुखों का (शेष पृ० ८ पर)

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