Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 59
________________ प्राचार्य हमारे कुन्दकुन्द १६ शिविरो का सयोजन-सचालन कर उनके विचारो पर टीका सकता है पर कुन्दकुन्द का कुन्दन आपके आत्मतत्व को, पढ़ाकर । अधिकारी-विद्वानो और विज्ञ मुनि आचार्यगणो फिर समूचे परिवार और समाज को सुशोभित कर देगा। को विचार गोष्ठि । आयोजित कर। विद्वान और मुनि आपका ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी कुन्दन की नाई रश्मियो सभा में सामान्य-जैन को बतल एगे कि आचार्य श्रेष्ठ बिखेरता रहेगा। अपने कुन्दकुन्द के कुन्दन की भव्याभा कुन्दकुन्द के विचारो का सामाजिक योगदान क्या रहा है, से आखे, मन-प्राण, कर्ण पवित्र करें और आत्मा को अपने क्या हो सकता है। स्वभाव में रमने का अवसर दें। परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी ने समयसार ग्रन्थ पहले आप पा ले तो फिर आपके बेटे-बेटी कुन्दकुन्द को 'कुन्दकुन्द का कुन्दन' कहा है। वह कुन्दन अब घर-घर के इस प्रसाद को जतन से प्राप्त करते रहेगे और अपने पहुच सकेगा। सुनरहाई या सराफा से लिया जाने वाला मगलमय-विशाल-प्रासादो के कक्ष सदा कुन्दकुन्द से स्वर्ण आपके देह तत्व को कुछ समय तक ही सजा-सवार परिपूर्ण रखेगे। - - पृ० ८ का शेषाश) गया है मूर्ती का पिछला हिस्सा नाग शरीर के सिबा लगी आग की वजह से ऐसा है। इसके सिवाय कोई समतल है । इस प्रतिमा मे शासन देवी तथा यक्ष आदि की क्षति नही पहुची शेष प्रतिमा का पालिश अब भी जैसे का अनुपस्थिति महत्वपूर्ण है। वैसा है। पादपीठ की विशेषता यह है कि इस पर दोपक्तियो प्रस्तुत मूर्ति सभवतः गुजरात या राजस्थानी कला का मे लेख विद्यमान है जो अधिकाश घिस गया है। लेखक प्रतिनिधित्व करती है क्योकि इसी क्षेत्र में सात सर्पफणों को अधिक समय तक मूर्ति का अध्ययन करने का अवमर कछ के छत्र के साथ ही लेखों मे पाश्र्वनाथ नामोल्लेख की नही दिया जिससे उसे आसानी से पढ़ा जा सकता। फिर परम्परा लोकप्रिय थी। संभव है यह शब्द भी उक्त मूर्ति भी लिपी नारी मिश्रित अक्षरो की है और १५वीं शब्दी लेख में आया हो। वैसे ही यहां के जन परिवारों की की तो निश्चित ही है और यही इस प्रतिमा का समय भी पिछला पा पिछली पीढी कही बाहर से आकर बसी है। आसपास के है। प्रथम पक्ति में कुछ शब्दो के बाद “मलमघे" शब्द इलाके में विरले ही जैन लोग मिलते है। स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता है। निचली पक्ति में एक वर्तमान युग मे २४ तीर्थकरो मे से अंतिम दो तीर्थंकरों त्रिकोण आकार का चिह्न बना हे जिम के बाद लेखनी पार्श्वनाथ एव महावीर की ही ऐतिहासिकता सर्वमान्य है। द्वितीय पक्ति आर होती है। पार्श्वनाथ की यह मति विदर्भ के जैन धर्म के लिए एक प्रस्तुत मूति का पिछला हिस्सा कुछ लाल-पीला पड महत्वपूर्ण स्रोत है इममे सदेह नही। गया है। पत चला कि लगभग ५० वर्षों पहले घर मे बेझनबाग, नागपुर-४४०००४ स्वच्छन्दो यो गणं त्यक्त्वा चरत्येकाक्यसंवृतः । मृगचारीत्यसौ जैनधर्माऽकीर्तिकरः नरः॥ आचा० ६/५२ ---जो स्त्रच्छन्द होकर मृग के समान एकाकी भ्रमण करता है और इन्द्रिय दास होता है वह जैनधर्म को निन्दा कराने वाला होता है।

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