Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 55
________________ मूलाचार व उसकी प्राचार वृत्ति का भिन्न ही प्रयोजन या अभिप्राय रहा है' ऐमा स्पष्टी- नही है। उसका अर्थ 'व्याख्यान करना चाहिए' यह होता करण होना चाहिये। आगे अनुवाद में जैसे वैद्य रोगी के चाहिए। उस प्रसंग में जो अपवाद के रूप मे विशेष फोड़े को चीरता है...' इत्यादि स्पष्टीकरण प्रसंग के वक्तव्य रहा है उसे मूल ग्रन्यकार ने उसके आगे स्वय अनुरूप ही रहा है। १८८.६५ गाथाओं में अभिव्यक्त कर दिया है। ३ यहीं पर आगे वृत्ति में (पृ० ४६) 'तदुभयोभनमु इमी भूल से यहां भावार्थ में जो उसका स्पष्टीकरण भयम् पाठ मुद्रित है, जो निश्चित ही अशुद्ध है। पर किया गया है वह आगम परम्परा के विरुद्ध सिद्ध होने उसका 'मालोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना तवुभय वाला है। उसमे यह अभिप्राय प्रगट किया गया हैतप है' यह अनुवाद सगर ही है । 'तप' के स्थान में 'प्राय- "इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आयिकाओं घिचत' शब्द का प्रयोग अधिक निकटवर्ती था। मुद्रित उस के लिए वे ही अट्ठाईस मूलगुण और वे ही प्रत्याख्यान, अशुद्ध पाठ के अनुसार 'उन दोनों को छोड़ देना' यह संस्तरग्रहण आदि तथा वे ही औधिक पदविभागिक समा. उसका अर्थ होता है, जो प्रसग के सर्वथा विरुद्ध है। चार माने गये है जो कि यहा तक चार अध्यायों में मुनियों ४ इसके आगे यही पर वृत्ति में (पृ० ४७) 'विपरीतं का गतस्य मनस: निवर्तन श्रद्धानम्' यह 'श्रद्धान' प्रायश्चित्त के इस प्रसग मे यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मलप्रसंग में कहा गया है। गुणों में तो प्राचेलक्य और स्थितिभोजन भी हैं (यही पर पीछे गा० २-३ व प्रवचनसार गा० ३, ८-६), ऐसी परियहां 'विपरीतं' के स्थान मे सम्मवतः "विपरीतता' स्थिति में क्या ये दोनो मूल गुण भी आयिकाओं के द्वारा पाठ रहा है। विपरीत' पाठ को देखकर ही सम्भवतः अनष्ठेय हैं। यह यहां विशेष स्मरणीय है कि धवलाकार उसके अनुवाद मे 'विपरीत मिथ्यात्व' अर्थ किया गया है आ० बीरसेन ने स्त्रियों की अचेलकता (निर्वस्त्रता) का जो संगत नही दिखता। 'विपरीतता' पाठ के के अनुसार प्रबलता से विरोध किया है (पु० १, पृ० ३३२-३३)। उसका अर्थ विपरीतता-मिथ्याभाव (अयथार्थ श्रद्धान) को आ० कुन्दकुन्द ने भी स्त्रियो के लिए प्रवज्या का प्राप्त मन को उससे लौटाना, यह अर्थ होगा जिसे असगत प्रतिषेध करते हुए उन्हें एक वस्त्र की धारक कहा है। नहीं कहा जा सकता कारण यह है कि 'श्रद्धान' के प्रसग यथा - में मन को केवल विपरीत मिथ्यात्व की ओर से ही नही लिंग इत्थीण हवदि भुंजइ गिडं सुएयकालम्मि । हटाना है, प्रत्युत सब ही प्रकार के मिथ्यात्व से हटाना अज्जिय वि एकवत्था वत्थावरणे ण भुजेइ । बोधप्राभत अभिप्रेत है। २२ (आगे की गाथा २३-२६ भी द्रष्टव्य है। ५ गाथा ११२की वृत्ति (पृ० ६६) मे गाथा मे उप- यह भी स्मरणीय है आ० ज्ञानमती माता जी प्रस्तुत युक्त 'उपक्रम' का अर्थ उपलब्ध पाठ के अनुसार 'प्रवर्तन' मूलाचार का रचयिता आ० कुन्दकुन्द को ही मानती हैं। होता है जो प्रसग के अनुरूप नही है । 'उपक्रम प्रवर्तन' निक: के स्थान मे 'उपक्रमः अपवर्तन' पाठ सम्भव है । तदनुसार जहां तक मैं समझ सका हूं प्रस्तुत गाथा मे उपयुक्त अनुवाद में 'यदि मेरा इस देश या काल में जीवन रहेगा' 'एसो प्रज्जाण पि सामाचारों' में मलग्रन्थकर्म का अभिके स्थान में 'यदि इस देश या काल में मेरे जीवन का प्राय 'एसो' से केवल प्रकृत चौथे सामाचार अधिकार का उपक्रम-अपघात होता है' ऐसा अभिप्राय रहना ही रहा है, न कि पूर्व चार अधिकारों का। यदि ऐसा न चाहिए। समझा जाय तो एक यह आपत्ति भी उपस्थित होती है ६ गाथा १८७ (पृ० १५३) में विभासिदब्बो-वि- कि आगे के अन्य पंचाचार, पिण्डशुद्धि और आवश्यक भाषयितव्यः' पद प्रयुक्त हुआ है। अनुवाद में उसका अर्थ आदि अधिकारों में प्ररूपित अनुष्ठान आयिकाओं के लिए 'करना चाहिए' ऐसा किया गया है, जो प्रसग के अनुरूप निषिद्ध ठहर सकते हैं।

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