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६ वर्ष ४००२
इसी प्रकार बुद्धिपूर्वक चारिपालन के अभाव की भ्रष्ट संज्ञा है न कि भेद रत्नत्रय रूप पारिपालन के अभाव की । क्योकि निर्वाण तो तभी होगा जब सम्यग्दर्शन सहित सम्यक्चारित्र भी होगा पर गाथा कहती है कि 'परियट्टा सिमांति' अर्थात् परिभ्रष्ट मोक्ष प्राप्त करते हैं तो वहाँ चरियभट्टा का अर्थ उपर्युक्त ही लगाना होगा ।
अनेकान्त
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायों के ( प्रवृत्ति के अभाव का नाम अप्रमाद है, इसी की चरिनभट्टा संज्ञा है ।
-धवल पु० १४ पृष्ठ ८६ उपर्युक्त अभिप्राय पर विश पुरुषों से विचार
करने का अनुरोध है।
२. योगे पर्याड पबेसा, ठिदि अनुभागाकसायदो होदि
उपर्युक्त पक्ति का अर्थ हम सब ऐसा करते आए हैं कि योगों से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं और कषायो से स्थिति और अनुभाग बन्ध । सो ठीक भी है क्योकि गाया का स्थूल अर्थ तो यही निकलता है परन्तु विचार करें कि जब आचार्यों ने बन्ध के प्रत्यय मिथ्यात्व अविरति (असंयम), कथा और यग बताये है तो इनमे से योग और कषाय को ही बन्ध का कारण मानेंगे तो मिध्यात्व
अविरति के हिस्से मे कौन-सी बन्ध का कार्य आएगा, जबकि बन्ध में मिध्यात्व प्रधान है और योग सभी अवस्थाओं में सबके साथ बन्ध कराने मे आगे रहता है। यदि कषाय की अन्तरदीपक मान कर विचार करे तो योग जब मिध्यात्व के नेतृत्व मे रहता है तो वहाँ अविरति और ( पृ० ४ का
अन्यथा तो निर्दोषी आहार बन ही नहीं सकता ।
श्रावक तो अपने लिये आहार बनाता ही नहीं यह तो पात्र दान के लिये ही आहार बनाता है इसलिये पाप बंध न करके पुण्य बंध करता है। यदि वही आहार वह अपने लिए बनाता तो पाप बंध होता पात्र को आहार दान देकर । वह जो भी बचा सो आप भी खा लेता है। दुबारा आरभ नहीं करता। और मुनि नब कोटि शुद्ध है इसलिए कर्म
कषाय भी है परन्तु बन्ध कराने में प्रधानता मिध्यात्व की रही और जब योग अविरति के साथ उदय में जाता है, वह कषाय है पर बन्ध कराने का श्रेय अविरति को है ; इस तरह जब योग मिध्यात्व अविरति के उदयाभाव में सिर्फ कषाय के साथ उदय को प्राप्त होता है, वहीं बंध कराने की प्रधानता कषाय की है और जब योग एकाकी उदय में आता है यानी उसके साथ किसी और का बल नही होता तब सिर्फ प्रकृति प्रदेश बन्ध होता है। इस विषय में पवला पु० १३ पृ० ४७ सूत्र २३ मे कहा है कि ईर्ष्या का अर्थ योग है। वह जिस कार्मण शरीर का पथ, मार्ग हेतु है, वह ईर्यापथ कर्म कहलाता है। मात्र योग के कारण जो कर्म बँधता है, वह ईर्यापथ कर्म है ।"
कषायसहित जीवो के ईर्यापथ कर्म नहीं होता । (g० १३ पृ० १२) जो कार्मण वर्गणा स्कन्ध कर्म रूप मे स्थित है, मे मिथ्यात्व आदि कारणों का निमित्त पाकर अन्य परिणामों को प्राप्त न होकर अनन्तर समय मे आठ कर्म रूप, सात कर्म रूप और छह कर्मरूप परिणत होकर गृहीत होते हैं।
इस तरह सभी आचार्यों ने मिध्यात्व असंयम, कषाय और योगो को बन्ध के प्रथम (कारण) स्थिर किये हैं फिर मिध्यात्व और असयम को बन्ध के कारणो से निकाल देना क्या आचायों के वचनों की अवहेलना करना नहीं है ?
अतः आचार्यो के वचनो की गरिमा और सिद्धान्त की रक्षा कषाय को अन्त दीपक मानकर अर्थ करने में है । विद्वानों से इस अभिप्राय पर विचार करने का अनुरोध है।
शेषांश)
बंध नहीं होता । भोजन तो बनावे पात्र दान के लिये और यह कहये कि आपके लिये नहीं बनाया तब तो मायाचारी आवेगी पाप का बंध होगा।
यह लेख विद्वानों और स्थागियों के विचार करने के लिये लिखा है: २/१० अंसारी रोड नई दिल्ली ११.०२ सम्मति विहार