Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 44
________________ उद्दिष्ट आहार समयसार तात्पर्यवृतिः गाथा ३०४- ३०५ की टीका करते हुए आचार्य जयसेन स्वामि लिखते हैं कि :अयमभिप्राय पश्चात्पूर्व संप्रतिकाले वा योग्याहारविषये मनोवचन कायकृत कारितानुमत रूपैर्नवभिर्विकल्पशुद्धास्तेषां परकृताहारादि विषय बधो नास्ति यदि पुन परकीय परिणामेन बंधो भवति तहि क्वापि काले निर्वाण नास्ति । तथा चोक्त — णव कोडि कम्मसुद्धो पच्छापुरदो य संपडियकाले पर सुह दुणिमितं वज्झदि जदि णत्थि निव्वाण यहां यह अभिप्राय है कि भोजन के पीछे पहले या भोजन करते समय मुनि के योग्य आहार के विषय मे मन वचन काय से कृत कारित अनुमोदन रूप नौ विकल्प से रहित शुद्ध आहार होता है। अर्थात मुनि किसी आहार के विषय में मन वचन काय कृत कारित अनुमोदन रूप कोई भी विकल्प नही करते, इसी से उन गुनियो के दूसरे गृहस्थी के द्वारा किये हुए आहार आदि के सम्बन्ध मे कर्मों का बन्ध नहीं होता क्योंकि वध परिणामों के प्राधीन है। गृहस्थ उसके बनाने आदि के विकल्प करता है इससे वधता है। मुनि महाराज ऐसे विकल्प नही करते इससे नही बघते) यदि ऐसे माने कि दूसरे के द्वारा किए गए परिणाम से दूसरे के बध हो जाय तो कही भी किसी को भी निर्वाण का लाभ न होवे । ऐसा ही अन्य ग्रन्थ मे कहा है । तीन काल में नव कोटि शुद्ध भोजन को जो मुनि लेता है सो पीछे पहले व वर्तमान मे नव कोटि शुद्ध है और यदि वह दूसरों के सुख दुख का निमित्त हो और बध को प्राप्त करें तो उसको निर्वाण का लाभ नही हो सकता । ओसिक चाहार को लेकर अपने समाज मे बहुत प्रकार की ऊहापोह है । श्रावक तो गर्म पानी पीता नहीं, बिना नमक का बिना चीनी का, बिना घी का भोजन करता नहीं। वह तो जो कुछ भी तैयारी करता है पात्र श्री 'बाबूलाल जैन के आहार दान के लिये ही करता है चाहे एक चौका लगे चाहे १० चौका लगे । श्रावक रोगी मुनि को औषध देता है वह अपने लिए नहीं बनाता। व्रती धावक भी पात्र दान के लिये ही आहार बनाता है। आज कल तो व्रती श्रावक नही के बराबर है अव्रती श्रावक शुद्ध भोजन करता नही वह जो आहार बनाता है वह पात्र दान के लिये हो बनाता है। अगर उद्देशिक आहार की यही परिभाषा की जावे कि पात्र के उद्देश्य से बनाया है वह उद्देशिक आहार है सब तो सभी मुनि आज भी और प्राचीन काल मे भी उद्देशिक आहार के दोष के भागी रहते और कर्म बध नहीं रुक सकता। मुनि को यह मालूम भी कैसे हो सकता है कि यह मेरे उद्देश्य से बनाया या बिना उद्देश्य के बनाया आहार है । यह तो श्रावक के परिणामो पर निर्भर करता है और धावक के परिणामों का फल मुनि को लगने लगे तो उसके कर्म बध रुक नहीं सकता और मोक्ष की प्राप्ति हो नहीं सकती। यह तो तथ्य है कि जीव अपने ही परिणामों का फल पाता है दूसरे के परिणामों का फल दूसरा नहीं पाता पर जितने भी चरणानुयोग के ग्रन्थ है उनमें ये ही परिभाषा मिलती है कि मुनि के उद्देश्य से बनाया आहार उद्देशिक है । परन्तु कार मे जो प्रमाण दिया गया है उससे यह परिभाषा निकली है कि मुनि नव कोटि शुद्ध है तो मुनि के आहार कृत आरंभ का दोष नहीं लगेगा | यही परिभाषा ज्यादा युक्तियुक्त लगती है। श्रावक ने अपने लिये आहार बनाया अगर मुनि ने मन, वचन, काय से कृत, कारित या अनुमोदन करो तो वह उद्देश आहार हो गया और मुनि को कर्म बध हो गया। यदि श्रावक ने पात्र दान के लिये ही आहार बनाया और मुनि नव कोटि शुद्ध है तो कर्म वध नहीं हुआ कर्मबंध में मुख्पता मुनि के अपने परिणामों की है। यदि यह परिभाषा मानी जावे तभी उद्देशीक आहार का त्याग बन सकता है (शेष पृ० ६ पर)

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