Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ लाचार व उसकी प्राचार वृत्ति १२-१८३ व सर्वार्थसिद्धि ८२ मे कर्मयोग्यानिति लघुनि शात् सिद्धेः कर्मणो योग्यानिति पृथगविभक्त्युच्चारणवाक्या तरज्ञापनार्थम् । इत्यादि (मूला वृत्तिगत प्रसंय कुछ अशुद्ध भी हुआ है किन्तु लेख को अधिक विस्तृत करना समय के अनुरूप नहीं है, अतः उनको अभी स्थगित करना ही उचित होगा । ३ जनेन्द्र व्याकरण-वृत्तिकर्ता लक्षणशास्त्र के भी अधिकारी विद्वान रहे है । उनकी विशेष रुचि जैनेन्द्र व्याकरण की ओर रही है, यह उनकी इस वृति के परिशीलन से स्पष्ट है । मूल ग्रन्थकार ने 'सामाचार अधिकार को प्रारम्भ करते जो मगल किया है उसमे 'सामाचारं हुए समासवो वोच्छ इस प्रकार से मंगलपूर्वक सामाचार अधिकार के कहने की प्रतिज्ञा की है । इसमे जो :समासदां (समासतः ) ' पद प्रयुक्त हुआ है उसके विषय मे वृत्ति कार ने यह स्पष्ट किया है कि यहां 'समासतः' मे जो पचमी विभक्ति का बोधक 'तस्' प्रत्यय हुआ है वह जैनेन्द्र व्याकरण के इस सूत्र के अनुसार हुआ है कायास्तस् (जैनेन्द्र सूत्र ४।१।११३) । यहा यह स्मरणीय है कि जैन व्याकरण मे 'का' वह पंचमी विभक्ति की सहा है। यही पर आगे गाथा ४-२ में प्रयुक्त 'सम्मान समान ) ' के स्पष्टीकरण में उन्होंने यह कहा है कि 'सह मानेन वर्तते इति समान' इस विग्रह के अनुसार यहा 'सह' के स्थान में इस सूत्र से 'स' आदेश हो गया है सहस्य स . खो (जैनेन्द्र सूत्र ४ । ३ । २१६.) । ४ धवला - प्रस्तुत मूलाचार वृत्ति में षट्खण्डागम की टीका धवला के अन्तर्गत अनेक सन्दर्भों को कही शब्दश उसी रूप मे और कहीं पर संस्कृत छायानुवाद के रूप मे यथा प्रसग अन्तर्हित कर लिया गया है। यथा पट्खण्डागम में सर्वप्रथम सूत्र १,१-२२ (१०१, पृ० १६१-७० ) मे मिध्यात्वादि चौदह गुणस्थानो के नामों का निर्देश मात्र किया गया है। उधर मूलाचार मे गाया १२१५४-५५ द्वारा भी उक्त गुणस्थानों का नामनिर्देश मात्र ११ किया गया है। उनका विशेष विवरण इन दोनो ग्रन्थों की टोका मे उपलब्ध होता है। विशेषता यह रही है कि घवला में जहां उनका स्पष्टीकरण मूल ग्रन्थ के अनुसार पूर्वोउन सूत्रों मे पृथक् पृथक् किया गया है वहा प्रस्तुत मूलाचार वृत्ति में उनका स्पष्टीकरण उक्त दोनों गाथाओ ( १२, १५४-५५ ) की वृत्ति में एक साथ कर दिया गया है। जैसे प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वरूप धवला में इस प्रकार कहा गया है- मिथ्या वितथा व्यालीका प्रसत्या दृष्टिदर्शनं विपरीतैकान्त-विनय सायाज्ञानरूपमिध्यात्व कर्मोदयजनिता येषा ते मिथ्यादृष्टयः । XX X अथवा मिथ्या वितथम्, तत्र दृष्टि रुचिः श्रद्धाप्रत्ययो येषां ते मिध्यादृष्टयः घरा पु० १, १६२. इसे मूलाचार वृत्ति में शब्दश: इस प्रकार आत्मसात् कर लिया गया है मिथ्या वितथा[व्यलीका ] ऽसत्या दृष्टिदर्शन विपरीतकान्त-विनय संशयाज्ञानरूपमिध्यात्वकर्मोदयजनिता येषा ते मिथ्यादृष्टयोऽथवा मिथ्या वितथा तत्र दृष्टी रुचि बढा प्रत्ययो येषां ते मिध्यादृष्टयो] [उनेकान्ततत्त्वपराङ्मुखाः] । मूलाचार वृत्ति बम्बई संस्करण २, पृ० २७३ व शा० पी० संस्करण २, पृ० ३१३. इसी प्रकार सासादन आदि अन्य गुणस्थानो से सम्ब न्धित सन्दर्भ को भी दोनो ग्रन्थो मे समान रूप से देखा जा सकता है ( धवला पु० १ - सासादन पृ० १६३, सम्यग्मि० पृ० १६६, अ० पृ० १७१, सता० पृ० १०३. ७४, प्रमत्त १७६-७७, अप्रमत्त० १७८ ७६, अपूर्व० १५०८२. अनिवृत्ति १०३८६ सूक्ष्म० १०७.६८ उपशा १८६००२ क्षीणक० १८९-९० स०] १९१ अयोग के ० १६२ और गुणस्थानातीत सिद्ध २००. इस प्रसंग में धवला मे प्रसग के अनुरूप शका-समा धान पूर्वक बीच बीच मे कुछ अन्य चर्चा भी की गई है, इससे क्रमश सन्दर्भों का मिलान करना शक्य नहीं है, इसलिए यहा धवला से लेकर कुछ सम्बद्ध वाक्यो को १. यहां धवला में प्रसंग से सम्बद्ध दो प्राचीन गाथाओं को उद्धृत कर उनके आश्रय से अपने अभिप्राय की पुष्टि की गई है, जिन्हें आ० बसुनन्दी ने उद्धृत करना भावश्यक नही समझा ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149