Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 27
________________ सिद्धा ण जीवा-धवला एक समाधान : आदि कर्मों से सबधित है -मात्रपुद्गल से सबधित नही । यद्यपि आयु के सबध से जीवत्व' मानने का पुद्गल और कर्मपुद्गलो में क्या भेद है इसे सभी जानते हैं। राजवातिककार ने आपत्ति उठाकर खण्डन । कया है और अत: सष्ट है कि धवलाकार अपनी दृष्टि में ठीक है'जीव-ज' को परिणामिक मानने की पुष्टि की है जीवत्व को दयजन्य* है और इसीलिए 'सिद्धा ण जीवा' 'प्रायुर्व व्यापेक्षां जीवत्व न पारिणामिकमितिचेत्, न जमा कथन युक्ति-सगत है। पुदगलद्रव्य बंधे सत्यन्यदव्यसामर्थ्याभावात ।' ॥३॥---- स्यादेतत् - प्रायु व्योदयाज्जीवतीति जीवो नानादि पारि. __ संसारी और मुक्त : । न उठता है कि यदि धवलाकार आचार्य क न मे गामिकत्वादिति; तान, कि कारण? पुद्गलद्रव्यसंबधेसत्य 'सिद्ध भगवान् जीव-सज्ञक नही तो आचार्य ने जीवो के न्यद्रव्यसामर्थ्याभावात् । प्रायहि पौदगलिक द्रव्यम् । यदि संमारिणोमुक्ताश्च' जैसे दो भेदो से समन्वय कसे बिठाया? तत्सबधाज्जीवस्य जीवत्व स्यात्; नवेवम यद्रव्यस्यापिधर्मादेरायुः संबधाज्जीवत्व स्यात् ।" - T० बा० २.७१३ इस विषय मे हम ऐसा समझ पा है कि --जहां तक जीव सज्ञा या जीवत्व का प्रश्न है, आचार्य इमे औदयिकभाव उनका कहना है कि आयु पोद्गलिक द्रव्य है जन्य मानते है और वह औदयिक होने मे ही सिद्धो मे सभव यदि पोद्गलिकद्र के सबध मे जीवत्व माना जायगा नही। हां, जहाँ आचार्य ने उक्त प्रसग से जीव और जीवत्व तो अन्य धर्म-अधर्म आदि द्रव्यो मे भी जीवत्व मानना क.ा निषेध किया व यह भी कह दिया है कि चेतन के गुण पड़ेगा (क्योकि उन व्यों से पृद्गलो का सदाकाल सबंध को अवलम्बन कर प्ररूपणा की गई है। इससे विदित होता रहता है) है कि आचार्य की दृष्टि शुद्धत्वाश्रित रही है और इस यद्यपि उक्त तक ग्रोर गमाधान प्रामाणिक प्राचार्य का प्ररूपण मे उन्होने चेतन के गण को मूल स्थाई मानकर उसे है और ठीक होना चाहिए, जो हमारी समझ में बाहर जीवत्वपर्याय और मिद्धत्वपर्याय जैसे दो भागो मे बांटा है-इसे विद्वान विचारे । तथापि हम तो ऐमा समझ पाए है है। चतन की गर्व कर्मरहित अवस्था सिद्धपर्याय है और कि उक्त तक जीवत्व' के औयिक भाव, होने को निरस्त कर्म सहिन चेतन की अवस्था (कर्मजन्य होने से) जीवकरने मे कमे भी ममर्थ नही होगा ? यत ---उक्त प्रमग के पर्याय है और जीव-संज्ञा समारावस्था तक ही सीमित अनसार धर्म आदि द्रव्यों में जीवत्व आ जाने जैसी आपत्ति है...-अन्य आचार्यों की मान्यता जोग? इसलिए नहीं बननी कि जिस पुद्गलद्रव्य मात्र के सबध से अकल कस्वामो धर्म आदि द्रव्यों में जीवत्व लाने जैमो यदि कथचित् हम जीवो म भी संसारी और मुक्त आपत्ति उठा रहे हैं, वह पद्गलद्रव्यमात्र के सबध की __ पोजने लगे और वह इसलि · कि ये जीवो के ही भेद कह बात घचला . IF के मत में मेल नहीं पाती। अपितु गए है। तो हम इस पर विचार कर सकते है कि छास्थधवलाकार वे मत मे वह मात्र पृद्गल द्रव्य ही नही बल्कि जीव ममारी और केवलज्ञानी जीव मुक्त कहे जा सकते है । पुद्गलकार्माण वर्गणाप्रो मे - पायपूर्वक (फलदान की शक्ति क्योकि अगहन्त जीव है और वे चेतनगुणघाती चार घातिय। को लिए हुए) स्थिति रूप में आत्मा से बन्ध को प्राप्त आय कर्मों से मुक्त हो चुके है - उन्हे आत्मगुणो को पूर्ण प्राप्ति नाम का एक कर्मविशेष है, जो कि चेतन में ही सभव है, हो चुकी है, उन्हें मकल-परमात्मा और जीवनमुक्त धर्म आदि अचेतन द्रव्यो मे उसकी (इन द्रव्यो क अचेतन कहा ही गया है। यहाँ जीव-मुक्त का अर्थ जी। होने से) सभावना ही नही। फलतः उनमे जीवत्व आ जाने होते भी मुक्त है -सा लेना चाहिए। शेष चार की शका करना अशक्य है। फिर, उदय क्षय, क्षयोपशम, अघातिया कर्म तो जली रस्सी की भाँति अकिचित्कर - 'आऊदाणजीव। एव भात सवण्हू ।' कुनकुन्द, गमयसार- २५-२५२ 'जीवित हि तावज्जीवाना स्वायुकोदयनैव' - अमृतचन्द्रश्चायंवही

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