Book Title: Anekant 1987 Book 40 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 22
________________ २०, बर्ष ४०, कि.. अनेकान्त होता। हैं, जो अग्नि और जल की भिन्नता की पहिचान कराते गतांकों में हमने धवला जी के उक्त कथन 'सिद्धा ण- हैं। इसी मांति जब हमें जीवत्व और सिद्धत्व दोनों के जीवा: की पुष्टि में जो कुछ लिखा है, वह मान्य प्रतिष्ठित, लक्षण अलग-अलग मालुम पड़ जाएंगे तब हम सहज में प्रामाणिक आचार्य के कथन की अपेक्षा को हृदय में श्रद्धा जान जाएंगे कि सिद्ध क्यो और किस अपेक्षा से जीव नही करके ही लिखा है और आज भी उसी विषय को उठा रहे हैं? फलत:-पहिले हम जीव के लक्षण को लेते हैं और है-'सिया ण जीवा।' इस लक्षण में किन्ही आचार्यों को मत-भेद भी नही है सभी ने तत्वार्थसूत्र के 'उपयोगो लक्षणम्' को स्वीकार उक्त कथन का तात्पर्य यह नहीं कि सिद्ध भगवान किया है। इसका अर्थ है कि-जीव का लक्षण उपयोग है। अजीब, जड़ या अचेतन हैं। सिद्ध तो सिख हैं, विकसित जिसमें उपयोग हो वह जीव है और अन्य सब जीव से वेतन संबंधी अनंतगुणों के कालिक धनी हैं, शुद्ध चेतन वाह्य हैं। अब हमें यह देखना है कि वह उपयोग क्या है ? स्वभावी हैं, अविनाशी-अविकार परमरसधाम हैं। अतः जो जीव में होता है या होना चाहिए? इस विषय को भी प्राचार्य-मत में हमने उन्हें (कल्पित, पराश्रित और हम आचार्य के वाक्यो से ही निर्णय में लाएं कि उ होंने बिनाशीक प्राणाधार पर आश्रित, लौकिक और व्यवहारिक) उपयोग का क्या लक्षण किया है ? वैमाविक 'जीव' सझा से अछता समझा है। हमारा प्रयोजन चेतन के नास्तिस्व करने से नहीं है। यतः हम यह भी उपयोग (जीव का लक्षण): जानते हैं कि यदि हम जीव का मूलतः नाश मानेंगे तो हम १. 'स्व-पर प्रहरण परिणामः उपयोग' हो कैसे जीवित रहेंगे? यदि रहना भी चाहें तो हमें यहां -धवला २/१/१, जी० कां० ६७२ के लोग रहने क्यों देंगे? जबकि 'सिद्धा ण जीवा' जैसी -स्व और पर को ग्रहण करने वाला परिणाम बाचार्य की एक बात मात्र कहते ही उन्होंने, वस्तुस्थिति उपयोग है। को समझे बिना ही हमें बंटना शुरू कर दिया हो ! अस्तु; २. 'मार्गरणोपाय ज्ञान-दर्शन सामान्योपयोगः' संस्कार जो हैं। -गो० जी० जी० प्र०२/११/११ सभी जानते हैं कि लक्षण एक ऐसा निर्णायक माप है -मार्गण (खोज) का उपाय ज्ञान-दर्शन सामान्य जो दूध और पानी के भेद को दिखाने में समर्थ है। आचार्यों उपयोग है। ने लक्षण का लक्षण करते हुा लिखा है-'परस्पर व्यति- ३ उमयनिमित्त वशात्पद्यमानश्चतन्यानुविधायिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्' अर्थात् जिस हेतु परिणामः उपयोग'-सर्वार्थ २/८ के द्वारा बहुत से मिले हुए पदार्थों में से किसी भिन्न --अंतरग वहिरग निमित्तों के वश से उत्पन्न होने जातीय पदार्थ को पृथक रूप में पहिचाना जाता है, वह हेतु वाना चैतन्यानुकूल परिणाम उपणेग है। उस पदार्थ का लक्षण होता है। जैसे अग्नि का लक्षण वरपरिणमित्तो जादो भावो जीवस्स होवि उपयोगों' उगत्व और जल का लक्षण शीतस्व। दोनों के लक्षण ऐसे -गो० जी० ६७२ पं० सं० प्रा० १/१७५ *नोट-उक्त सबंध मे 'षटखडागम' के भाषाकार विद्वान-त्रय (डा. हीरालाल जी, प नचंद जी शास्त्री तथा प० थालचंद जी शास्त्री) द्वारा संपादित प्रनि में लिखा है-'यद्यपि अन्यत्र जीवत्व; भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक मानकर इन्हें अविपाकज जीवभाववन्ध कहा है पर ये तीन भाव भी कर्म के निमित्त से होते हैं इसलिए यहाँ इन्हें अविपाकज जीवभाववन्ध में नहीं गिना है" षटख. पुस्तक १५, विषयपरिचय । यदि वे इसका खुलासा कर देते तो समस्या हल हो जाती कि ऐसा भेद क्यो? पर, यह समस्या हल होविद्वानों का इधर ध्यान जाय इसलिए प्रयास प्रारम्भ किया है। -लेखक

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