Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 10
________________ गतांक से आगे: अपभ्रश साहित्य की एक अप्रकाशित कृति : पुण्णासवकहा 0 डा. राजाराम जैन, आरा 'पुण्णासवकहा' की आद्य प्रशस्ति के अनुसार महाकवि आश्रयदातारइध ने प्रस्तुत ग्रन्थ भट्टारक कमलकोति की प्रेरणा से उक्त ग्रन्थ प्रशस्ति के अनुसार यह रचना महाकवि लिखा है। वे कहते हैं कि हे कबि रइधू-तुम व्यर्थ में रइधू ने साह नेमदास के आश्रय में रहकर लिखी है । साहू समय क्यो गंवा रहे हो? कवित्व विनोद के साथ ही समय नेमदास के विषय मे कवि ने लिखा है कि उसके पूर्वज व्यतीत करना चाहिए। अत: तुम विशाल 'पुण्णासवकहा' योगिनीपुर के निवासी थे। यह वश साहित्य सेवा को की रचना करो। क्योकि पुण्णाश्रव से ही सुखसिद्धि होती अपना महान् धर्म एव समाज सेवा को अपना पुनीत कर्तव्य है, उसके बिना मनुष्यभव दुर्लभ है। ससार में रहकर समझता रहा है। विद्वानों को ऐसे ही कार्य करना चाहिए जिससे शुभ भावों साह नेमदास के विषय में कवि ने लिखा है कि वह का प्रवर्तन होता रहे । कवि ने लिखा है : अपने समकालीन राजा रुद्रप्रताप चौहान द्वारा सम्मानित एकहि दिखि धम्माएसु दिण्णु । था तथा व्यापार कार्यों मे अग्रसर । उसने हीरा, मोती, भो बुह किं वासरु गमहि सुण्णु ॥ माणिक्य विद्रुम आदि की कई जिन-प्रतिमाओं का निर्माण सकइत्त विणोएँ जाउ कालु । कराकर तथा उनकी प्रतिष्ठा कराकर तीर्थेश गोत्र का वंध पुण्णासउ बिरयहि जणि विसालु ॥ किया था। पुण्य कार्यों से अपनी ऐसी उज्ज्वल महिमा पुण्णासवेण सुहसिद्धि होइ । बनाई थी कि उसके सम्मुख पूर्णमासी के चन्द्रमा की ज्योति ति विणु माणुस भउ विहलु लइ ॥ भी मलिन होती हुई प्रतीत होती थी। उसने अनेक जिनसुहभाउ पवट्ट जेण जेण । भवन बनवाए । बुधजनों के लिए तो वह चिन्तामणि रत्न तं त कायव्वउ इह बुहेण ॥ ही था। उसने अपने व्यवहार से शत्रुओ को भी अपना मित्र पुण्णासव ॥२॥४-७ बना लिया था । कवि ने कहा है :कवि यद्यपि इस कार्य को श्रमसाध्य मानता है, फिर ................"जसमरणिवासु । भी उक्त भद्रारक के आदेश से वह ग्रन्थ रचना में अग्रसर संघाहिव णोमि मिदास ॥ होता है। अग्गेसह णिव वावार कज्जि । उक्त भट्टारक कमलकीति के विषय में मैं अन्यत्र प्रकाश सुमहंत पुरिम पहुरूद्दरज्जि ॥ डाल चुका हूं। अतः यहाँ सक्षेप मे इतना कहना ही पर्याप्त जिबिंब अणेय विसुद्ध वोह । है कि महाकवि रइधू ने इन्हें अपना प्रेरक गुरू माना है णिम्माविवि दुग्गइं पणिरोह ।। और अपनी अन्य रचनाओ-अरिट्टनेमि चरिउ, जसहर सुपइट्ठ कराविवि सुहमणेण । चरिउ प्रभृति ग्रन्थों में भी उनको चर्चा की है । उनका तिच्छेसगोत्तु वंधियउ जेण ॥ समय कई प्रमाणों के आधार पर वि० सं० १५०६ से १५४५ पुणु सुर विमाणुस मुसिहक्खेउ । के मध्य निश्चित होता है। णिय पहकर पिहिया चंदते ॥

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