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मानव जातियों का देवीकरण
मान पाताल में युद्ध के बाद असुर सस्कृति फैल गई थी देव परिषद सहित असुर हिन्दुस्तान के दक्षिण में तो असुर संस्कृति का बहुत ही असुर परिषद सहित देव विकास हुआ था। इसकी पुष्टि दो तीन बातो से की देव परिषद सहित देव गई है।
इनमें जो दुःशील है पापी है वे असुर और जो सुशील केरलके निवासियों का यह विश्वास है कि बलि उनके है सदाचार परायण है वे देव है। राजा थे। अब भी लोग एक सप्ताह के लिए बड़ी धूम उक्त कथन मे देव और असुर दोनो शब्दों का मानधाम से उत्सव मनाते है। मैसूर मे यह धारणा है कि वीकरण हया है। महिषासुर वही राज्य करता था।
जो सुशील और सदाचारी है उन्हे देव कहा गया है जैन दर्शन में असुर कुमारों का शारीरिक वर्णन करते और जो पापी व दु शील है उन्हें प्रसुर कहा गया है। हुए बताया है कि उनका रंग महानील मणि के समान
नाग तथा सुपर्णनीला था उनके चेहरे पर मणि की सी कान्ति थी उनकी प्रांखें लाल थी। दात दूध की तरह सफेद और हाथ-पैर
अमुर के बाद नाग और सुपर्ण का उल्लेख पाता है के तलवे अग्नि मे तपे स्वर्ण की तरह लाल थे। इस नाग और सुपर्ण ये दोनो ही यहाँ की प्रसिद्ध जातियाँ थी शारीरिक वर्णन से अनुमान होता है कि-यह असर जाति जो आज भी प्रासाम की तरफ मिलती है। नागालैंड गर्म प्रदेश में रहने वाली बहुत ही स्वस्थ और वीर जाति प्रदेश भी इसी नाग जाति का सूचक है । नागवश इतिहास थी। दक्षिण हिन्दुस्तान बहत गर्म प्रदेश माना जाता है। के पृष्ठो पर बहुत ही चर्चित रहा है। भगवान महावीर वहाँ के निवासियों का वर्ण आज भी श्याम होता है। स्वयं नागवंश के थे ऐसा मुनि श्री नथमल जी ने अपने इन सब बातों से निष्कर्ष यह प्राता है कि असुर वश का एक निबन्ध मे सिद्ध किया है। शिशुनाग वश ऋष्यमूक राज्य दक्षिणी भारत में था। असुर परिवार निश्चय ही पर्वत की रक्षा किया करता था। बिम्बसार के समय बलशाली और सभ्य समुदाय था । आर्य सस्कृतिके विकास शिशुनाग वश काशी पर राज्य किया करता था। नागमे इन समुदायो का महत्त्वपूर्ण हाथ था । देवराज इन्द्र वश की अनेक शाखाएँ थी। तक्षक, अहि, वासुकि, पणी, की कन्या जयन्ती का असुर गुरु शुक्राचार्य से विवाह हा फणी, पन्नग, शेषनाग प्रादि-प्रादि । इनमे से कोई जाति था। इससे लगता है कि देवों के साथ इनके वैवाहिक भी कश्मीर में निवास करती थी। शेषनाग और अनन्तनाग सम्बन्ध होते थे।
के नाम पर आज भी वहाँ तीर्थ स्थान बने हुए है । वासुकि प्रज्ञापना' सूत्र में आया है कि असुरो के शरीर का
जाति का निवास स्थान समरकन्द और मकरन्द देश था। सहनन बहुत ही सुन्दर होता है यह सहनन शब्द भी उन्हे
अजि के पूर्वज अहि कहलाते थे। पाणिनी व्याकरण के
आज मानव सिद्ध करता है, क्योकि सहनन का सम्बन्ध प्रौदारिक
रचनाकार पाणिनी और पाहिक नाम से इसी नागवश की शरीर से है। वैक्रिय शरीर धारक देवो के अस्थिया दोनी सूचना मिलती है। माज के युग में गायो के धनी अहीर ही नही ऐसी जैन दर्शन की स्पष्ट मान्यता है । बौद्ध दर्शन
इसी अहि जाति के वंशज है ऐसा उनके नाम से अनुमान
इसी अहि जाति मे बताया है कि इस दुनियाँ मे चार प्रकार के लोग विद्यमान है।
अाज का वणिक शब्द इस पर्णी शब्द का ही अपभ्रश असुर परिषद सहित असुर
हो ऐसा प्रतीत होता है । जाकार्त नदी के किनारे पर १. हिन्दूदेव परिवार का विकास पृ० १७
सिथियम रहते थे उनको नागोइ भी कहा जाता था। २ औपपातिक अ०१
पर्णी, नागोड मिलकर पन्नग नाम हो गया था । ३. प्रज्ञापना सूत्र
१. भगवान महावीर ज्ञात पुत्र थे या नागपुत्र । पृ० ४. अगुत्तर निकाय-नि० ४ अमुरवर्ग पृ० ६६ २. The s.s Ch. IV P. 33