Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ अनेकान्त [वर्ष १४ ठहरते हैं। और यह भी हो सकता है कि उनका बड़े प्रचारक और प्रसारक हुए हैं, उन्होंने अपने अस्तित्वकाल उत्तरार्धमें भी वि. सं.१६५ (शकस. समयमें श्री वीरजिनके शासनकी हजार गुणी वृद्धि ६०)तक चलता रहा हो; क्योंकि उस समयकी स्थिति- की है, ऐसा एक शिलालेखमें उल्लेख है, अपने का ऐसा बोध होता है कि जब कोई मुनि आचार्य- मिशनको सफल बनानेके लिये उनके द्वारा अनेक पदके योग्य होता था तभी उसको आचार्य-पद दे शिष्योंको अनेक विषयों में खास तौरसे सुशिक्षित दिया जाता था और इसतरह एक आचार्यके समयमें करके उन्हें अपने जीवन-कालमें ही शासन-प्रचारके उनके कई शिष्य भी प्राचार्य हो जाते थे और पृथक्- कार्यमें लगाया जाना बहुत कुछ स्वाभाविक है, और रूपसे अनेक मुनि-संघोंका शासन करते थे; अथवा इससे सिंहनन्दी जैसे धर्म-प्रचारकी मनोवृत्तिके कोई-कोई आचाये अपने जीवनकाल में ही आचार्य- उदारमना प्राचार्यके अस्तित्वकी सम्भावना समन्तपदको छोड़ देते थे और संघका शासन अपने किसी भद्रके जीवन-कालमें ही अधिक जान पड़ती है। अस्तु । योग्य शिष्यके सुपुर्द करके स्वयं उपाध्याय या साध ऊपरके इन सब प्रमाणों एवं विवेचनकी रोशनीपरमेष्ठीका जीवन व्यतीत करते थे । ऐसी स्थितिमें में यह बात असंदिग्धरूपसे स्पष्ट हो जाती है कि उक्त तीनों प्राचार्य समन्तभद्रके जीवन-कालमें भी स्वामी समन्तभद्र विक्रमकी दूसरी शताब्दीके विद्वान उनकी सन्तानके रूप में हो सकते हैं। शिलालेखोंमें थे-भले ही वे इस शताब्दीके उत्तराधे में भी रहे प्रयुक्त 'अवरि' शब्द 'ततः' वा 'तदनन्तर जैसे अर्थ- हों या न रहे हों। और इसलिये जिन विद्वानोंने का वाचक है और उसके द्वारा एकको दूसरेसे बाद- उनका समय विक्रम या ईसाकी तीसरी शताब्दीसे का जो विद्वान् सूचित किया गया है उसका अभि- भी बादका अनुमान किया है वह सब भ्रम-मूलक प्राय केवल एकके मरण दसरेके जन्मसे नहीं, बल्कि है। डा. के. बी. पाठकने अपने एक लेखमें शिष्यत्व-ग्रहण तथा प्राचार्य-पदकी प्राप्ति आदिकी समन्तभद्रके समयका अनुमान ईसाकी आठवीं दृष्टिको लिये हुए भी होता है। और इसलिये उस शताब्दीका पूर्वार्ध किया था, जिसका युक्ति पुरस्सर शब्द-प्रयोगसे उक्त तीनों प्राचार्योंका समन्तभद्रके निराकरण 'समन्तभद्रका समय और डा० के० बी० जीवन-काल में होना बाधित नहीं ठहरता । प्रत्युत पाठक' नामक निबन्ध (नं०१८ ) में विस्तारके इसके समन्तभद्रके समयका जो एक उल्लेख शक साथ किया जा चुका है और उसमें उनके सभी सम्वत् ६० (वि० सं० १६५) का-सम्भवतः उनके हेतुओंको असिद्धादि दोषोंसे दृषित सिद्ध करके निधनका-मिलता है उसकी संगति भी ठीक बैठ निःसार ठहराया गया है (पृ. २६७-३.२।। जाती है। स्वामी समन्तभद्र जिनशासनके एक बहुत धर्मका आराधक' समझता था; जैसा कि पट्टावलीके "श्रीवर्द्धमानस्वामिप्ररूपितशुद्धधर्माराधकानां पट्टानुजिस पहावली में यह समय दिया हुआ है, उस पर क्रमः" इस वाक्यसे स्पष्ट है। पट्टावलीमें सत्तरह। सरसरी नजर बनेसे मालूम हुमा कि उसमें जो दूसरे पहपर समन्तभद्रका नामोल्लेख करते हुए उन्हें प्राचार्यादिका समय दिया हुधा हे वह सब उनके जीवन- दिगम्बराचार्य लिखा है। पट्टावलीका वह उह खवाक्य काखकी समाप्तिका सूचक है, और इससे समन्तभद्रका उक्त इस प्रकार हैसमय भी उनके जीवनकालकी समाप्तिका सूचक जान। ६. शाके राज्ये दिगम्बराचार्यः १७ श्रीसामन्तभद्रसूरिः श्वेताम्बरों के द्वारा पहावलिसमुच्य'मादि जो पट्टावलियाँ यहाँ इस पट्टावलीके सम्बन्ध में इतना और भी प्रकट प्रकाशित हुई है, उनमें जहाँ श्रादि पट्टपर सामन्तभद्रकर देना उचित जान पड़ता है कि यह पहावली किसी का नाम दिया है वहाँ साथमें 'दिगम्बराचार्य' यह श्वेताम्बर प्राचार्य या विद्वानके द्वारा संकलित की गई है। विशेषण नहीं पाया जाता: इससे मालूम होता है कि इसमें उन्हीं प्राचार्यादिकोंके नाम पट्टकमके रूप में दिये हैं यह विशेषण बादको किसी रप्टिविशेषके यश पृथक् किया जिन्हें संकलनकर्ता 'श्रीषद्ध मानस्वामि-प्ररूपित शुद्ध गया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 429