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आचार्य अमृतानन्द योगी ने भी काव्य मे व्यञ्जन वर्णों के प्रयोग की चर्चा की है । इस विषय मे अमृतानन्दयोगी आचार्य अजित सेन का अनुगमन करते है ।।
गणों के प्रयोग और उनका फलादेश :
अभीष्ट और अनिष्ट फल देने वाले प्रत्येक गण के फल को अवगत कर लेना चाहिए । काव्यारम्भ मे यगण का प्रयोग होने से धन की प्राप्ति, रगण के रहने से भय और जलन तथा तगण के होने से शून्य फल की प्राप्ति होती है अर्थात् सुख और दु ख प्राप्त नहीं होते, सर्वथा फलाभाव रहता है ।
काव्यादि मे भगण के होने से सुख, जगण के प्रयोग से रोग, सगण से विनाश, नगण के प्रयोग से धनलाभ और मगण के प्रयोग से शुभ फल की प्राप्ति होती है ।
देवता, भद्र या मंगल प्रतिपादक शब्द कवियों द्वारा निन्द्य नहीं माने गये है । आशय यह है कि अशुभ और निन्द्य वर्ण या गण भी देवता, भद्र और मगलवाचक होने पर त्याज्य नहीं है ।
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बिन्दुसर्गड़ आ सन्ति पदादौ न कदाचन । चतुर्भ्य कादिवर्णेभ्यो लक्ष्मीरपयशस्तु चात् ।। प्रीति सौरव्यं च छान्मित्रलाभौ जो भयमृत्युकृत् । झष्टठाभ्या खेददु खे शोभाशोभाकरौ डढौ ।। भ्रमण णात्सुख तात्रु थायुद्ध सुखदौ दधौ । न प्रतापी भयासौरव्यभरणक्लेशदाहकृत् । पवर्गो यस्तु लक्ष्मीदो रो दाही व्यसन लवौ । श सुख तनुते षस्तु खेद स सुखदायक 11 हो दाहकृद्वयसनदो ल क्ष सर्वसमृद्धिद । एव प्रत्येकत प्रोक्त वर्णाना वास्तव फलम् ।। सयोग सर्वथा त्याज्यो वर्णाना क्ष विनामुखे । शुद्धमप्यन्यसयुक्तमशुद्धमुपजायते ।।
अलकारसग्रह
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