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गुण, क्रियादि धर्मों का भी उल्लेख किया है । आशय यह है कि अप्रकृत के गुण क्रियादि धर्मो का जहाँ प्रकृत रूप मे सभावना की जाए वहाँ उत्प्रेक्षालंकार होता है । कारिका मे आए हुए 'उपतर्कणम्' का अर्थ 'उपसभावनम्' करना समीचीन प्रतीत होता है क्योंकि अप्रकृत के धर्म की प्रकृत मे सभावना ही वस्तुत उत्प्रेक्षा है । इन्होंने असत्य को सत्य रूप से उद्भावित करने में भी उत्प्रेक्षालकार को स्वीकार किया । वाच्य उत्प्रेक्षा तथा मम्योत्प्रेक्षा - दो भेद भी किया साथ ही साथ यह भी बताया है कि जहाँ . 'विमा मन्ये नून प्राय ' इत्यादि आरोपण वाचक शब्दों का प्रयोग हो वहाँ वाच्योत्प्रेक्षा होती है और इन शब्दों के अभाव मे गम्योत्प्रेक्षा होती है । उत्प्रेक्षा के उपर्युक्त भेदों का उल्लेख आचार्य मम्मट ने भी किया है किन्तु 'असत्ये सत्यरूपा उत्प्रेक्षा' इनकी नवीन कल्पना है 12 जिसका उल्लेख पूर्ववर्ती आचार्यों ने नहीं किया । इन्होंने जाति उत्प्रेक्षा तथा फलोत्प्रेक्षा का उदाहरण व विवेचन भी प्रस्तुत किया ।
आचार्य विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है 14 आचार्य रुय्यक तथा विद्यानाथ ने इसके 96 भेदों की चर्चा की है । किन्तु अजितसेन को ग्रन्थ - गौरव के भय से भेद विस्तार अभीष्ट नहीं है ।
अतिशयोक्ति -
आचार्य भामह के अनुसार किसी निमित से कथित लोकोत्तर उक्ति ही अतिशयोक्ति है ।' आचार्य वामन ने किसी अन्य आचार्य के मत को उद्धृत करके यह बताया है कि उत्प्रेक्षा ही अतिशयोक्ति है । किन्तु आचार्य वामन सभाव्य धर्म और उसके उत्कर्ष की कल्पना मे अतिशयोक्ति को स्वीकार करते है ।
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अ०चि0, पृ0 - 155 अचि0, 4/14। की वृत्त । इय जाति फलोत्प्रेक्षा नूनं चक्रिभुजद्वयम् । अचि0, पृ0 - 156 प्रताप0 पृ0 - 461 अ0स0, सू०-22 द्र0 वृत्त । उत्प्रेक्षा बहुविद्या विधाएं संक्षिप्ता ग्रन्थविस्तरभीरुत्वात् । अतैव सर्वत्र सक्षेप ।
__ अ०चि0, 4/142 की वृत्ति निमित्ततो वचो यत्तु लोकतिक्रान्तगोचरम् । मन्यन्तेऽतिशयोक्ति तामलकारतयो यथा ।।
भा०, काव्या0, 2/81 सभाव्यधर्मतदुत्कर्षकल्पनाऽतिशयोक्ति ।।
काव्या० सू०, 4/3/10