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जहाँ किसी वस्तु का गुण, क्रिया या जाति रूप से अन्य स्थानों पर विद्यमान रहने पर भी कहीं उसके अभाव का वर्णन हो तो वहाँ परिसख्या अलकार होता है । इसके दो भेदों का उल्लेख भी कया है । '
10 प्रश्नपूर्विका तथा 20 अप्रश्नपूर्विका ।
आचार्य मम्मट ने रुद्रट के आधार पर परिसख्या की परिभाषा प्रस्तुत की है । इनके अनुसार जहाँ पूछी गयी या न पूँछी गयी वस्तु शब्दत प्रतिपादित होकर अन्तत अपने समान किसी अन्य वस्तु का जहाँ निषेध करें वहाँ परिसख्या अलकार होता है । 2
प्रकाश के टीकाकार
का अर्थ है
वामन झलकीकर के अनुसार परिसख्या बुद्धि या विचारणा । वर्जन पूर्ण बुद्धि को परिसख्या के रूप मे स्वीकार किया गया है । 3
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काव्य
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परिसंख्या अलकार के चार भेद सभव हैं
प्रश्न कर शब्द द्वारा जहाँ निषेध किया जाए । प्रश्न कर निषेध की व्यजना करायी जाए ।
बिना प्रश्न के शब्द द्वारा जहाँ निषेध किया जाए तथा बिना प्रश्न के निषेध की व्यजना करायी जाए ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ एक वस्तु की अनेकत्र स्थिति रहने ही अर्थ में नियमित कर दिया जाए, वहाँ परिसंख्या
भेदों
पर भी अन्यत्र निषिद्ध कर एक अलंकार होता है । इन्होंने इसके प्रश्न का उल्लेख भी किया है पुन प्रत्येक के भेद भी किए हैं । उक्त चार भेदों के अतिरिक्त चारुत्वातिशय रूप श्लेषजन्य परिसख्या का भी उल्लेख किया है । सम्पूर्ण भेदों को मिलाकर इन्होंने परिसंख्या के पाच भेदों का उल्लेख किया है।
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पूर्वक तथा अप्रश्न पूर्वक शाब्दवर्ज्य ( शाब्दी ) तथा आर्थवर्ण्य
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रू0 काव्या0, 7/79
का0प्र0, 10/112
वामन झलकीकर टीका, पृ० 703
सर्वत्र सभवद्वस्तु यत्रक युगपत्पुन ।
एकत्रैव नियम्येत परिसख्या तुसा यथा ।।
सा द्विधा - प्रश्नाप्रश्नपूर्वकत्वभेदात् । तद्वयमपि द्विधा - वर्ज्यस्य शाब्दत्वार्थत्वाभ्याम् ।
अ०चि०, 4 / 284 एव वृत्ति ।