Book Title: Alankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Archana Pandey
Publisher: Ilahabad University

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Page 231
________________ आचार्यों ने मम्मट विषयक रस सिद्धान्त को सादर स्वीकार कर लिया है । रस की अभिव्यक्ति मे भरतमुनि ने स्थायी भाव का उल्लेख नहीं किया जब कि मम्मट ने विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव से अभिव्यक्त स्थायी भाव को रस कहा है अत रस के उद्बोधक उपयुक्त परिभाषिक पदों के विषय मे ज्ञान प्राप्त कर लेना आवश्यक है । स्थायी भाव - मनुष्य अपने जीवन मे जो कुछ भी देखता है, सुनता है, अनुभव करता है उसका सस्कार उसके हृदय मे वासना के रूप मे अवस्थित रहता है । वासना रूप में स्थित यह स्थायी भाव किसी प्रतिकूल या अनुकूल भावों से तिरोहित नहीं हो सकता 12 विभाव अनुभाव और संचारी भावों की अपेक्षा इनकी स्थिति चिरकालिक होती है । इन्हीं विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव से अभिव्यक्त हुआ स्थायी भाव रस कहा जाता है । आचर्य अजितसेन स्थायी भाव को रस न कहकर रस का अभि व्यञ्जक क्तया है इनके अनुसार इन्द्रिय ज्ञान से संवेद्यमान मोहनीय कर्म से उत्पन्न रस की अभिव्यक्ति कराने वाली चित्त वृत्ति रूप पर्याय ही स्थायी भाव है। स्थायी भाव चित्त की वह अवस्था है जो परिवर्तन होने वाली अवस्थाओं में एक से रहती हुई उन अवस्थाओं से आच्छादित नहीं हो जाती, बल्कि उनसे पुष्ट होती रहती है । मुख्य भाव स्थायी भाव कहा जाता है अन्य भाव स्थायी भाव के सहायक एवं वर्धक होते हैं । इन्होंने रसाभिव्यञ्जक चित्तवृत्ति को स्थायी भाव के रूप में स्वीकार करके एक नवीन विचार प्रस्तुत किया है । विभाव का स्वरूप - आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ नाटक इत्यादि देखने वालों तथा - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - एक प्रताप0 पृ0 - 258 खि सा0द0, 3/1 सा0द0, 3/174 का0प्र0, 4/27-28 तेनविद्यमानो यो मोहनीयसमुद्भव । रसाभिव्यञ्जक स्थायिभावश्चिद्वृत्तिपर्यय ।। अ०चि0, 5/2 रतिहासशुच क्रोधोत्साहौ भयजुगुप्सने विस्मय शम इत्युक्ता. स्थायिभावा नव क्रमात् ।। वही, 5/3

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