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व्यञ्जनास्वरूप:- आचार्य अजितसेन के अनुसार अनुगत पदार्थों मे वाक्यार्थ को आस्वादनीय बनाने के लिए अन्याय के प्रत्यायक शब्द व्यापार को व्यञ्जना वृत्ति के रूप मे स्वीकार किया गया है । इन्होंने शब्दशक्ति मूल, अर्थशक्ति मूल और उभयशक्ति मूल रूप से इसके तीन भेद किए हैं तथा प्रत्येक के उदाहरण भी है ।
गहिन्योव्याप्तमेदिन्यश्चक्रिण कृतसंभ्रमा । कबन्धापूर्णमातेनु प्रत्यर्थिबलवारिधिम् ।।
उक्त श्लोक में कबन्ध शब्द शत्रु सेना मे कटे हुए, मस्तक रहित शरीर का वाचक है किन्तु अनेकार्थक होने से नदी जल की भी प्रतीति होती है इसलिए यहाँ शब्दशक्तिमूला व्यञ्जना है ।
अर्थशक्तिमूलक व्यञ्जना मे अनुमान की शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि व्यंजक भाव में अविनाभाव सर्वथा असंभव है ।
उदाहरण- श्रीमत्समन्तभद्रारण्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिखन् भूमिमड् गुब्ठेरानतानना ।।
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अतिरिक्त विषाद के कारण भूमि खोदने वाले व्यक्ति की भी प्रतीति कराता है अतः यह
उपर्युक्त श्लोक मे कुबादी शब्द के द्वारा कुत्सित शास्त्रार्थी
अर्थशक्तिमूला व्यञ्जना है ।
जहाँ शब्दशक्ति तथा अर्थशक्ति दोनों की प्रतीति हो वहाँ उभयशक्ति मूला व्यञ्जना होती है यथा
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अनन्तद्योतनसर्वलोकभासकविग्रह. ।
आदिब्रह्मजिन सर्वश्लाध्यमानमहागुणः ।।
अनुगतेषु वस्तुषु वाक्यार्थोपस्काराय भिन्नार्थगोचर शब्दव्यापारो व्यञ्जना वृत्ति । सात्रिधा ।
(क) शब्दशक्तिमूला, अर्थशक्तिमूला, उभयशक्तिमूलेति । क्रमेण यथा - - ।
अचि०, पृ०
(ख) का०प्र०, 2/19 तथा 4/37
अ.चि., 5/155
वही 5/156
वही 5/157
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