Book Title: Alankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Archana Pandey
Publisher: Ilahabad University

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Page 254
________________ 2140 अतिमात्र - 15 विसदृश - 116, 17 समताहीन और सामान्य साम्य - जो सभी लोकों में असभव हो वह अतिमात्र दोष है। जहाँ उपमान असदृश हो वहाँ विसदृशोपम दोष होता है । जहाँ उपमान उपमेय की अपेक्षा बहुत अपकृष्ट या उत्कृष्ट हो वहाँ हीनाधिक्योपमान या समताहीन दोष होता है । दिशा इत्यादि से प्राय जो विरुद्ध प्रतीत हो उसे विरुद्ध दोष कहते हैं । 118 विरुद्ध - परवर्ती काल मे आचार्य विद्यानाथ ने अजितसेन द्वारा निरूपित उक्त अर्थदोषों को सादर स्वीकार कर लिया ।' इसके अतिरिक्त आचार्य अजितसेन ने देश विरूद्ध लोक विरुद्ध, आगम विरुद्ध, स्ववचन विरुद्ध, प्रत्यक्ष विरूद्ध, अवस्था विरुद्ध, दोषों का भी उल्लेख किया है 12 उपर्युक्त दोषों का निरूपण करने के अनन्तर इन्होंने नाम दोष का उल्लेख किया है जहाँ इन्होंने स्व शब्द से वाच्य रसों और भावों के कथन को दोष बताया है । दोषों की गुणताः आचार्य अजितसेन ने दोषों की गुणता पर भी विचार करते हुए बताया कि काव्य में रहने वाले दोष कभी - कभी गुण हो जाते है । जैसे चित्रकाव्य में परूष वर्णों का नियोजन ।4 यमक, श्लेष और चित्रकाव्य तथा दो अक्षरों से निबन्ध रचना में क्लिष्ट, असमर्थ और नेयार्थ दोष नहीं माने जाते । कामशास्त्र मे लज्जोत्पादक अश्लील वर्णन होने पर भी दोष नहीं होता । वैराग्य में जुगुप्सा प्रताप0, पृ0 362 अचि0, 5/254 से 256 तक दोषस्तु रसभावानां स्वस्वशब्दग्रहाद् यथा । श्रृंगारमधुरा तन्वीमालिलिंग धनस्तनीम् ।। अ०चि0 5/57 वहीं 5/62 वहीं, 5/63 वहीं, 5/64

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