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आचार्य अजितसेन ने भी इसे विशेषण वैचित्र्य मूलक अतकार के अन्त परिगठित किया है और अभिप्राय युक्त विशेषण मे इसकी स्थिति स्वीकार की है।
परिकरांकुर ः
परिकराकुर अलकार को निरूपित करने का श्रेय रावप्रथम आचार्य अजितसेन को है इनके अनुसार जहाँ साभिप्रायक विशेभ्य का वर्णन हो वहाँ परिकरांकुर अलंकार होता है | 2
परवर्ती काल में विद्याधर तथा अप्यय दीक्षित ने भी अजितसन के लक्षण के आधार पर इसका निरूपण किया है । 3
व्याजस्तुतिः -
आचार्य भामह, दण्डी, वामन इसकी अलकारता स्वीकार करते है4 राजानक मम्मट, जगन्नाथ व्याजस्तुति को उभय पर्यवसायी मानते है । व्याज से निन्दा के द्वारा स्तुति की जाए अथवा स्तुति वहाँ व्याजस्तुति नामक अलकार होता है ।
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विशेषणवैचित्र्यमूलपरिकर कथ्यते ।
विशेष्ये साभिसंधी तु मत परिकरांकुर । चतुर्णामनुयोगानां तासो धुर्मुख ।।
(क) एकावली, 8/25 (ख) कुव0, 63
(क) काव्या०, 3 / 31
(ख) का0द0, 2/346
(ग) काव्या० सू०, 43, 24
(घ) काव्या० सा० सं०, 5/9
(क) का०प्र० 10/112
प्रताप, पृ० गर० गं०, पृ०
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और उद्भट स्तुति पर्यवसायीनिन्दा में विद्यानाथ तथा पण्डितराज आशय यह है कि जहाँ के द्वारा निन्दा की जाए
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अवि०, पृ0 - 192
arof 40, 4/246