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भी पाया जाता है । अप्रस्तुत को वर्णन का विषय बनाया जाने के कारण इसे अप्रस्तुत अलंकार कहते हैं ।'
आचार्य भोज ने धर्म, अर्थ और काम तीनों में से किसी एक की बाधा होने पर किसी भी वाच्य हेतु अथवा प्रतीयमान हेतु के माध्यम से स्तोतव्य की जो स्तुति हो वह अप्रस्तुत अलकार है । 2
मम्मट के अनुसार अप्रस्तुत के कथन से जहाँ प्रस्तुत का आक्षेप किया जाय वहाँ अप्रस्तुत प्रशसा अलकार होता है । 3
रूय्यक के अनुसार जहाँ अप्रस्तुत से सामान्य विशेषभाव, कार्य कारणभाव अथवा सादृश्य सम्बन्ध होने पर प्रस्तुत की प्रतीति हो वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार होता है | 4
शोभाकर मित्र के अनुसार जहाँ अप्रस्तुत से अन्य ( प्रस्तुत ) की प्रतीति हो वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार होता है । 5
वृतान्त की प्रतीति हो वहाँ अप्रस्तुत प्रशसा भेद होने की चर्चा की है । इनके द्वारा में, और कार्यकारणभाव में जहाँ अप्रस्तुत के अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार होता है 16 का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है ।
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आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ अप्रस्तुत वृतान्त के कथन से प्रस्तुत अलंकार होता है । इन्होंने इसके अनेक सारूप्य कथन में, सामान्य विशेष भाव कथन से प्रस्तुत की प्रतीति हो वहाँ इनकी परिभाषा पर मम्मट कृत परिभाषा
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वक्रोक्तिजीवितम्, 3/21, 22
०क०भ०, 4/158, 159
अप्रस्तुतप्रशंसा या सा सैव प्रस्तुताश्रया ।
अ०स० सू० 35
अ०र० सू० - 38
प्रकृतं यत्र गम्यताप्रकृतस्य निरूपणात् । अप्रस्तुतप्रशंसा सा सारूप्यादेरनेकधा ।।
100 10/98
37.99. 4/259